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कजली की कुछ वलयाकार

रूप से यह त्योहार प्रायः इसी प्रान्त और उसके आसपास ही कुछ दूर में मनाया भी जाता है।

अवश्य ही उत्सव ने क्रमशः उन्नति लाभ किया होगा और पूजा से खेल होते होते बहुत दिन लगे होंगे, फिर कजली की गीतों की विशेष संज्ञा स्थिर होने में भी कुछ दिन लगे होंगे, तत्पश्चात् उसकी स्वतन्त्र उन्नति और उसका स्थिर स्वरूप हुआ होगा। सारांश त्योहार के प्रचार का समय तो भविष्य पुराण के निर्माण वा उसके कुछ पीछे का मानना चाहिये। आल्हा के कडखे में कजली खेल का प्रसंग सुने जाने से पृथ्वीराज के समय के कुछ आगे अर्थात् वै॰ ११०० से उसे भी प्रचरित अनुमान कर सकते हैं। इसी प्रकार कजली गीत की सृष्टि भी उसी के संग वा उसके कुछ पीछे से भी प्रचरित माने तो उसका समय भी आठ नौ सौ वर्ष बतलाया जा सकता है। यदि यह अनुमान सत्य हो, तो अवश्यही उस समय की कजलियाँ यह नहोगी कि जिन्हें आज हम सुनते हैं। क्योंकि यह प्रचरित कजलियो कदाचित् दो ढाई सौ वर्ष से अधिक पुरानी नहीं प्रतीत होतीं। शोक है कि प्राचीन कजलियों के न मिलने से उसकी भाषा से कुछ भी सहायता नहीं मिलती कि जिससे कुछ विशेष पता चले। तौभी जहाँ तक हम अनुमान कर सकते हैं, सौ वर्ष के इधर से इसमें बहुत सुधार हुआ और पचीस वर्ष से यह विकृत हो चली कि जब से खजरी-वालों ने अखाड़े बाँध बाँध कर अपनी खाःमखाही खरैख्याही कर उसकी ख्वारी पर कमर बाँधी है।

(३) 'किस कारण से?' के उत्तर में यद्यपि हम कुछ कह पाये हैं, शेष आगे चलकर भी कहेंगे; तौभी यहाँ इतना और कह देना उचित है कि ग्राम्य नारियों के वर्षा विनोद उद्घाटनार्थ एवम् उस ऋतु में होनेवाले कार्य, क्रीड़ा और आचार व्यवहार के अवसर पर ग्राम्य गीतों के नियत रूप से गाये जाने से कजली का जन्म हुआ; जैसा कि होली, सावन, झूले वा झेलुये की गीत आदि का अलगाव या ठहराव हुआ होगा। सारांश सामान्यतः ढुनमुनियाँ खेल की गोत ही की कजली कहते हैं, जो अनेक प्रकार की होती तथा जिनमें पीछे से भी कई भेद हुए और होते ही जाते हैं।

(४) "क्योंकर वा किस प्रकार से इसकी उत्पत्ति हुई।" इस विषय' में हमारा अनुमान यही है कि इसकी उत्पत्ति अनेक प्रकार की ग्राम्य गीतों ही से हुई है, क्योंकि सामान्यतः सबी ग्राम्य—विशेषतः स्त्रियों से गाई जाने