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प्रेमघन सर्वस्व

वाली—गीतों ही की सी बनावट की प्रायः सब असली और पुरानी कलालेयाँ मिलती हैं, जैसे कि कजली की मुख्य लय की गीत—जिसे हमने सबसे पुरानी चाल और सब का मूल समझ कर प्रधान प्रकार स्थिर किया है,—यद्यपि वह निरौनी आदि कई प्रकार की ग्राम्य गीतों से भी मिलती है, तौभी यदि उसकी उत्पत्ति 'सावन या सावनी' गीतों से ही मान लें, तौभी कोई बाधा नहीं पड़ती; क्योंकि इन दोनों की बनावट में कुछ विशेष अन्तर नहीं। दोनों प्रकार से दोनों गायी भी जा सकती हैं। यथा—

सावनी—गड़ा रे हिंडोलवा जनकपुर, झूलहिं लछिमन राम।

कजली—बँसिया काहे के बजाय, हम तो आवतै रहे।

इसी प्रकार हम देखते हैं, तो झेलुये की गीत, सोहिल नकटा, विरहा, तिमिरा, गाली और कहारों की कई प्रकार की गीतों से मिलती हुई वा ज्यों की त्यों प्रस्तार की अन्य शेष प्रकार की भी कजलियों की बनावट पाई जाती है; विस्तारभय से हम जिनका तारतम्य यहाँ करना उचित नहीं समझते। तौभी प्रधानतः ग्राम्य नारियों की निरौनी के अवसरवाली तथा झलेमादि की गीतों से निकलकर, कजली में दुरने और क्रीड़ा के अनुकूल लय में खपती, कजली के धर्म सम्बन्धी कृत्य, उत्सव' और खेल में गाई जानेवाली, उन्हीं खेल और कृत्यों से सम्बन्ध रखनेवाले विषयों तथा उसी सुहावने अवसर के वर्णन से युक्त गीतों का नाम कजली हुश्या। अर्थात् जो उस अवसर पर विशेष सुहावनो और कजली खेल में अनुकूल समझी गई तथा क्रमशः जो उन अनेक प्रकार की गीतो के गाने में विभेद पड़ा कजली ठहराई गई। इसी प्रकार समय समय पर चतुर एवम् सङ्गीत निपुण स्त्रियों से इसकी भाषा, प्रबन्ध लय और गाने की रीति में भी सुधार होता रहा जिसका प्रमाण आज भी यहाँ के कजली सुननेवालों को प्रत्यक्ष मिल सकता है। अर्थात् उसी एक कजली की (१) ग्राम्य स्त्रियाँ जिस प्रकार गाती है, नागरिक (२) नीच जाति की स्त्रियाँ ढुनमुनियाँ[१] खेलते उसे दसरे ही प्रकार से; एवम् (३) उच्च जातिवालियों की ढोलकी और मजीरों के ताल में बंधकर वही तीसरा रूप धारण कर लेती है। यहीं तक कजली का यथार्थ रूप भी रहता और यहीं से मानो कजली की वर्तमान वास्तविक लय


  1. अनेक स्त्रियां जब मिलजूल कर टमर झुकाकर चुटकियाँ बजाती हुई घशगोलकार घुमती चली जाती है तो उसको ढुनमुनियाँ और घुरना भी कहते हैं।