बहुत कुछ जाती रही। कुछ से कजली का अब कुछ सम्बन्ध ही न रहा! हमने एक विदेशी प्रसिद्ध वेश्या को तुत्तीय प्रकार अर्थात् सँवलिया" की कुजली को छुट्ट पीलू' की धुन में और बनारस की एक नामी वेश्या को एक बड़ी महफ़िल में प्रधान प्रकार की एक कजली को शुद्ध भैरवी में गाते सुना कि जिसमें कजली के सुर का नाम भी न था और जो सुनने में बहुत ही असह्य हई थी। कजली भी मानो ठुमरी वा दादरा ठहरा कि जिस राग में चाहा गा दिया।
न केवल ऐसे गानेवाले वा उनके सिखलानेवाले ही वो अपनी कारीगरी दिखलाने को इसकी जान लेते, वरञ्च बहुतेरे बनानेवाले भी अपनी कारगुजारी दिखलाने में उनसे कहीं आगे बढ़ते जाते हैं। जिसमें एक तो स्थानिक पहाड़ी खोह और झरनों के जल में बूटी छानकर प्रमत्त, हरे भरे पर्वत शृंगों पर विहार करते बेठिकाने गुण्डानी तान लड़ानेवाले, सामान्य यहाँ के (९) अक्खड़ और मस्ताना मिजाज़ लोग, दिनका किसी प्रस्तार या पद में दो चार शब्द अधिक मिला देना सहज और स्वाभाविक धर्म है। जैसे कि—
तोहके कीरा काटे हो बलमा हम तो जावै तिरकोन[१]
दूसरे उक्त अखाड़े वाले (१०) कजलीबाज लोग—जो अपनी बनाई कजलियों को बँजड़ी बजा बजा कर गाते और गोल बाँधकर कभी कभी निर्लज्जता से ढुनमुनिएँ का अनुकरमा कर दुरते भी हैं— निःसंकोच अपने कजली बनाने और गाने में मनमानी गढन्त गढ़ते चले जाते है, जिस कारण क्रमशः नित्यप्रति इसकी दशा बिगड़ती जाती है। विशेष कर अंतिम मण्डली से इसे बड़ी हानि पहुँच रही है, क्योंकि वे लोग बहुत ही बेठिकाने और बेसमाते जोड़' 'जोड़ते चले जाते हैं; वरञ्च सच तो यह है कि कजली को इन्होंने पचड़ा बना डाला, जिसके उदाहरण अनेक प्रकार के दिये जा सकते, परन्तु अनावश्यक हैं; तौभी आगे चलकर एकाध दिये जायेंगे। कजली की दूसरी दूसरी धुन के पैवन्द लगा देना तो मानो इनका नित्य का अभ्यास है। अवश्य ही जो उनमें चतुर और रसीले चित्त होते कभी कभी पाली कलियाँ भी बना डालते; किन्तु अधिकांश अनेक भोंडे भाव तथा
- ↑ त्रिकोण अर्थात् साधन के प्रति मंगलवार का पहाड़ी मेला, जो विंध्याचल के स्थानों को देवियों के दर्शन से सम्बन्ध रखता है।