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कजली की कुछ वलयाकार

अति अश्लील शब्द और अर्थों के सन्निवेश से उसे घुदास्पद कर दिया करते हैं जैसे कि—

ऐसी नारि नटखट नाहीं देखा, उतौ लेखा मांगै अपने भतार से,
आवै जब बजार से ना॥
कहयै भतार ऐसन मेहरि मरि जाते, छुटि जाते जियरा झबार से।
हारे यहि छिनार से ना।
कहई नारि पिया! तूं मरि जात्यः, जायकै मिलित कौनौं यार से।
कटत बहार से ना॥

तौभी ये लोग प्रायः स्वयम् अपनी मण्डली ही में गाते और कुछ स्थानिक ही लोगों को सुनाते हैं। किन्तु इनसे बढ़े चढ़े तीसरे वे लोग है, जो कवि कहलाने वा नाम पाने अथवा पैसा कमाने के लिए कजलियाँ बनाते वा बनवाते और छोटी छोटी किताबें छाप छाप कर बेंचते। ऐसी पुस्तके यद्यपि कई इस नगर में भी प्रकाशित हुई हैं, किन्तु अधिकांश बनारस से—जो निपट उजड्डू और मूखों की बनाई हुई होती—छापाखाने वालों और पुस्तक विक्रेताओं द्वारा छपतीं और पैसे दो दो पैसे पर बहुतायत से बिकती हैं, जिनमें अधिकांश अश्लील और भद्दे ही भावों से भरी कजलियाँ संगृहीत होती कि जो पढ़ने वालों के चित्त पर कजली का रूप न केवल बहुत ही नीरस, निकृष्ट और निकम्मा प्रमाणित करतीं, वरञ्च उन्हें जो लोग एकराठ कर गाते, प्रायः सहृदय सुननेवालों को भी लजाते और कजली के नाम से उन्हें अश्रद्धा उत्पन्न कराते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि कजली एक ग्राम्य गीत है, इसी से उसकी गाथा, उसका भाव, विषय और प्रबन्ध अवश्य ही ग्राम्य' होना ही स्वाभाविक है, किन्तु कदाचित निपट नीरस, भोंडे अथवा अश्लील कदापि नहीं। असली कजलियों में जो कभी कभी कुछ वेढंगे पद श्रा भी जाते, तो वह किसी ऐसे आवश्यक स्थान पर आते, जो एक प्रकार का अपूर्व आनन्द लाते वा मजे को बढ़ाते हैं।

(५) "वास्तव में इसका रूप और लक्षण क्या है।"...यह प्रश्न सबसे अधिक आवश्यक और जटिल है, इसी से इसमें बहुत विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता है, क्योंकि इस ग्रामीण मीत में प्रायः सबी अंशों में आशातीत उन्नति की है। यों ही गीत होने के कारण न केवल इसके (१) राग वा धुन अथवा (२) सुर और ताल आदि, वरञ्च (३) छन्द वा प्रस्तार