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कजली की कुछ व्याख्या


सारांश कजरी तो वही जो दुनमुनियाँ ही में व्यवहत और सारंगी सबले से अछूती बच रही है। जिसके कई उदाहरण कजली कादम्बिनी में भी हुनमुनियाँ की कजली के नाम से दिये गये हैं।

(२) कजली—वह है कि जो यद्यपि ढुनमुनियाँ बा ग्राम्य स्त्रियों के सामान्य अवसरों के गाने में प्रचलित हो, तथापि उसी भाषा और भाव को धारण किए हुए, वा कुछ-कुछ परिमार्जित हो, सारङ्गी के स्वरों में ढलकर भी अधिकांशतः अपने पूर्वरूप और लय ही में स्थित हो। जैसे कि—

तोरे दँतवा के बतिसिया जियरा मारै गोदना। अथवा
ताकः हमरो ओरियाँ भरि नजरिया रे हरी॥

वा जैसे भारतेन्दु बाबू' हरिश्चन्द्र कृत,—

पिय बिन सूनी सेजिया साँपिन सो मोरा निचरा डँसि-डँसि लेद।

(३) उजली—बह है कि जो भाषा और लय में परिवर्तन पाकर भी कजली के अस्तित्व को रखती हो । जैसे कि—

झूमत चली नार मदमाती छाती अञ्चल साहिं छिपाय।
नाजुक नवल बाल सौ पतली बरबस कमर लचाय।
रीझि किसोर कह्यो कब प्यारी लैही गरे लगाय।।

पं॰ किशोरी लाल गोस्वामी

वा जैसे स्थानिक कवि गोस्वामी वामनाचार्य गिरि कृत्त—

मुख मृगाङ्क महताबी राजे गोल कपोल गुलाबी रामा,
हरि-हरि भौं कमान जुग चढ़े वंक से बाँके रे हरी।

४—कजरा वह है,—जो यद्यदि ठीक ठीक स्थानिक ग्राम्य भाषा में रचित हो और प्रबन्धादि जिसके कुछ भी कजली के कैडे से बाहर न हो, परन्तु भाव उससे भिन्न हो। मज़मून मर्दाना अथवा पसन्द वा चाल गुण्डानी हो। जिसके—अनेक उदाहरण कजली कादम्बिनी में भी गुण्डानी कजली के नाम से दिये गये हैं—अथवा जैसे—

जिनि करः बिहइन से बहाना रे हरी॥
गाव लें मरदाना, जेकर लहै भिडै कै याना रामा
ह॰ आगे तो जरीबाना, फेर जलखाना रे हरी! अथवा—
देखायेन गुंडवन के तमासा रे हरी