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प्रेमघन सर्वस्व

वाले उनका अनुकरण कर आज भी कुछ न कुछ आनन्द ला देते, तौभी जहाँ से वे उनकी शैली को छोड़ देते, कृतकार्व्यता से हाथ धो लेते हैं। विशेषतः जब वे समझते, कि बिना कुछ नवीनता के उसका प्रचार न होगा, क्योंकि जब गानेवाले कुछ विशेषता पायेंगे, तबी सीख कर गायेंगे। इस प्रकार के व्यर्थ लालच से ठगे जाते हैं, क्योंकि नवीनता केवल भाव ही में आने से बह रुचिकर हो सकती है। महाकवि श्री सूरदाद, गोस्वामी तुलसीदास जी वा अन्य अष्टछापवाले अथवा नागरी दासादि सुकवियों के सबी यद एक से होकर भी अर्थ की विशेषता से ग्राज तक बड़े सम्मान और श्रद्धा से गाये और सुने जाते हैं, जैसे कि अनेक उर्दू वा पारसी के अच्छे शाइरों की गज़लें। परन्तु हो केवल दूसरों के लुभाने के ध्यान में नीरस तुकबन्दी करते और उसमें सब से सहज वे उर्दू भाषा और शेरों का मेल देकर फ़ल हुआ करते, अथवा पारसियों के नाटकों के गानों की नक्ल से अपनी ठुमरियों की शक्ल खराब कर देते है। इसी प्रकार यहाँ की स्थानिक भाषा और भाव ही मानो कजली की शोभा और जान है, किन्तु शोक कि अनेक अनजान हिन्दू और मुसलमान अब इसमें उर्दू भाषा के मिलान से मानो इसके नाम व निशान को भी मिटा देने का सामान कर रहे हैं। वे यह नहीं जानते कि भाषा से छन्द वा गीतों का सहज सम्बन्ध है। ध्रुपद, ख्याल, टापे और ठुमरियाँ की जैसे भिन्न-भिन्न भाषायें हैं, जैसे ही इस स्थानिक गीत कजली की भी यहाँ की स्थानिक ही भाषा होनी चाहिये, जैसे होली की भाषा बृज भाषा और चैती वा धांटो की पूर्वी वा बनारसी है। क्योंकि भापा के संग उसके साथी विपरीत भाव और विषय भी ऐसे बदल जाते कि जो सुनने में आनन्द लाने के स्थान पर अत्यन्त विरुद्ध, और घिनौने, वरञ्च कभी-कभी भयावने भी प्रतीत होते हैं। जैसा किसी ने बनाया है.—

तेग़ गले पर चलाना रे साँवलिया॥
मेरे मर जाने के बाद, मिट्टी होये न बर्बाद।
अपने हाथों दफ़नाना, रे साँवलिया॥

इसे कजली क्यों, मरसिया कहना चाहिये! पाठक समझ सकते हैं कि कैसा भष्ट भा और कैसी निकृष्ट इसको बनावट है। न केवल सँवलिया को रदीफ ही इसमें बेजोड़चती, वरच उसके वास्तविक अर्थ के विपरीत भी पड़ती है। इसके अतिरिक्त बिना उर्दू पढ़े लोग ऐसी क नलियों में पारसी अरबी के शब्दों को अशुद्ध ही गाते, जिससे यह और भी विकृत हो जाती है। जब