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प्रेमघन सर्वस्व

"कत्र ऐहै स्याम बंसीवाला! हमरी ओरियां॥
वहीं जसोदा कुँवर कन्हाई, वही नन्दलाला
पीताम्बर की कछनी काछे गरे मोहन माला।
वृन्दाबन में गाय चरावै ओढ़े कारी कामरिया।
हमरी ओरियां—
कालिन्दी के तीर खड़ा सब सखा लिये साथे।
कालीदह में कूद पड़ा है काला नाग नाथें।
काली नागिन अरज करत है, दीजै सिर की चादरिया।"
इमरी ओरियां—

कहिये, कैसी स्वाभाविक सुहावनी भाषा है? सचमुच यही भाषा हमारी प्यारी नागरी, खरी हिन्दी का खड़ी बोली की जड़ है। यही हमारी कविता की शैली है, न कि आज कल की मनमानी बन्दिश के ख्याल।

इसमें उर्दू और ब्रजभाषा कम, हिन्दी अधिक है, सर्वथा पुरानी कविता की भाषा से मिलती हुई भी कुछ नयापन झलकाती है, यद्यपि इसमें कोई शब्द का अर्थ चित्र नहीं। पीछे क्रमशः जब हिन्दी भाषा पुष्ट हुई, तो उर्दू के अति प्रचलित और आम—फहम् शब्दों की मिलावट पाकर यह प्राचीन शैली से दिलक्षण हुई। जैसे

है नयी सजाक्ट नयी तर्हदारी है।
सच कहो आज कल किससे नयी यारो है॥

यहाँ तक हिन्दी में उर्दू शब्दों की गुञ्जाइश है। इसे हिन्दी और उर्दू दोनों कह सकते और इसे लावनी कहने में भी हर्ज नहीं। परन्तु इससे अधिक उर्दू मेल की लावनी, हिन्दी नहीं है और न लावनी, उसे उर्दू कहिये, या ख्याल या खमसाँ पुकारिये। जैसे—

मिला हमें गुलज़ार व गुलरू अब गुलखाना न चाहिये।
मथ वहदत में, मस्त हूँ मैं, मयखाना न चाहिये॥

जिसे न बिना उर्दू पढ़ा मनुष्य शुद्ध गा सकता और न समझ सकता ह। इसके तुक के दोनों खकार हिन्दी में एक ही प्रकार में लिये जाते, किन्तु उर्दू में दो भिन्न भिन्न अक्षरों से। तब फिर इसे हिन्दी कैसे कहें और लावनी कैसे मानें। कदाचित् कुछ लोग समझते हैं कि उर्दू शब्दों के आने ही से कविता अच्छी और हिन्दी आने ही से खराब होगी। परन्तु, देखिये—