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कजली की कुछ व्याख्या

विन काज आज महराज लाज गयी मेरी।
दुख हरो द्वारका नाथ सरन मैं तेरी॥

बताइये, कौन उर्दू का ख्याल इसका मुकाबला कर सकता है खेद, कि लोग अपनी थोड़ी योग्यता को अयोग्यों में दिखलाकर विशेषज्ञ बनना चाहते हैं, क्योंकि उर्दू दोनों के मुकाबिल में उसकी पूरी योग्यता होनी चाहिये इतने में काम नहीं चलने का। निदान उदू की गजलों के मजमून लेकर नित नये नये खयाल बनते और अब खयालों की खाल खींच खींच कर कजलियाँ बनने लगी हैं।

पचड़े और बिरहे में भी उर्दू शेरों के बन्द सुने जाने लगे हैं। यों ही कजरी के अखाड़ों की तो वह भरमार हुई कि उनके होड़ की डर से औरतों ने कजरी गाना ही छोड़ दिया। काशी में व्यास गद्दी सी लगाकर मौतूद की कथा की भाँति इसकी भी कथा सी कही जाती है, उस्ताद सियां ऊपर बैठते और शागिर्द घेरकर पुराने दास्तान कजली में गाते हैं। कदाचित् कुछ दिनों में इसी में हदीस और कुरान का भी आख्यान हो। जो हो, कविता अपने लिये नहीं, वरच दूसरों के लिये होती है। कविता के मुख्य अधिकारियों पर दृष्टि देकर रचना होनी चाहिये। कजरी स्त्रियों की सादी गीत है, इसमें यहत दकीक वा कठिन भाषा और भावों का न आना ही स्वाभाविकता और सरसता का हेतु है। जैसे—

काले भँवरा रे तें तो जुलुम किहे।
अथवा जैसे पं॰ श्रीधर पाठक कृत—
हरि सँग डारि डारि गर बहियां झूलत बरसाने की नारि।

हमारी समझ में स्थानिक स्त्री ग्राम्य भाषा में कजली की रचना और उसमें कुछ सरसता लाना कुछ सहज नहीं, वरच बहुत कठिन है। उर्दू की रेखती से इसे कम न समझना चाहिये। सारा ग्राम्यभाषा में भी अच्छी कविता करनी अधिक योग्यता का प्रमाण है। नवाब खानिखानां की ग्राम्यभाषा की कविता किस आदर से पढ़ी जाती और उनकी भाषा-पाण्डित्य का प्रमाण मानी जाती है। इसी से कजली बनानेवालों को केवल यहो क ग्राम्यभाषा ही में अपनी रचनाचातुरी दिखलानी चाहिये। योही जो लोग कजली के अवसर पर नई कजलियाँ बनावा बनवाकर छपते हैं, यदि वे पुरानी विशेषतः स्त्रियों की रची कजलियों का संग्रह छाती अधिक श्रम और लाभदायक हो। एक विशेष प्रकार की कविता लोगों के दृष्टिगोचर हो।