पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३९८

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तृतीय साहित्य सम्मेलन कलकत्ते
के सभापति का भाषण

जयति सच्चिदानन्द धन जगपति मंगल मूल।
दया बारि बरसत रहौ सदा होय अनुकूल॥
जासु कृपा कन लेस लहि मो सम हमतिमन्द।
लहत महत सम्मान यह बुध जन सो सानन्द॥

मान्यवर स्वागत कारिणी समिति के सभापति महाशय और समुपस्थित सहृदय सज्जन समूह? परात्पर परमेश्वर की इस अतर्क्य और अप्रमेय सष्टि में जहाँ अन्य असंख्य अघटित घटनाये संघटित होती, वैसे ही यह आज श्राप की कृपा भी कुछ विलक्षण ही वैचित्र्य का दृश्य दिखला रही है, कि आप आर्थ मित्रों की इस सुप्रष्ठित महासभा का, जिस में एक से एक विद्वद्वर्या, साहित्य मर्मज्ञ तथा स्वमातृभाषामक्त विराजमान हो, मुझमा एक अति सामान्य व्यक्ति जो विद्या बुद्धि और अन्य आवश्यक योग्यताओं से सर्वथा शून्य हो, सभापति बने। अवश्यही इससे अधिक सौभाग्य का विषय और दूसरा क्या हो सकता है कि जिस में कुछ भी योग्यता न हो, वह सुयोग्य सज्जनों से योग्य माना जाकर सम्मान का भागी हो। परन्तु यदि वह घुणाक्षर न्याय से किसी प्रकार अपने कर्तव्य कार्य को भी सुसम्पन्न कर उसकी रक्षा कर सके, जिसकी मुझे कुछ भी आशा नहीं है।

महाशयो! सचमुच मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब कि मुझे यह सूचित किया गया कि "कलकत्ते की स्वागतकारिणी सभा ने तुमको तृतीय साहित्य सम्मेलन का सभापति चुना है" मैंने उत्तर में तुरन्त ही लिखा कि—यह आप लोगों ने क्या किया। मैं सर्वथा इसके अयोग्य हूँ। सोच समझकर कोई उचित प्रबन्ध कीजिये। स्वागतकारिणी समिति के मन्त्री महाशय का भी पत्र प्राप्त हुना। उन्हें भी मैंने इसी आशय का उत्तर दिया। पर मैं बहुत कुछ सोच विचार करके भी यह न समझ सका कि अन्य एकसे एक सुयोग्य विद्वान बुद्धिमान अनुभवी देश और भाषा भक्तों के होते हुए भी मुक सरीखे

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