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तृतीय साहित्य सम्मेलन कलकत्ता के सभापति का भाषण

उक्त सर्वगुणों से विहीन व्यक्ति को ऐसे महत्पद के अर्थ लोगों ने क्यों चुना है? क्या जो वास्तव में सम्मानित हुई है, उन्हें सम्मान प्रदान करने से क्या लाभ होगा। अतः किसी ऐसे ही को सम्मानित करना योग्य है, जो यथार्थ में हमारे ही सम्मान से सम्मानित हो; क्योंकि "व्याधितस्यौष पथ्यं निरजस्य किमौषधैः" समझा गया है। अथवा एक तुच्छ व्यक्ति को यह सम्मान संप्रदान कर सामान्यों को इस प्रलोभन से साहित्य सेवा में उत्साहित करने के अर्थ क्या इस नवीन उपाय की रचना की गई है? मैं कुछ भी ठीक न ठहरा सका कि मेरा कर्त्तव्य क्या है? इधर लोगों की बधाई और हर्ष की सूचनायें भी आने लगीं। विशेष कर कई सुयोग्य साहित्य सेवी और गण्य मान्य लोगों ने मुझे यह लिखकर निरुत्तर कर दिया कि "यदि तुम इस बार इस पद को स्वीकार न करोगे, तो सम्मेलन की सफलता में हानि होगी!" उधर मेरे पत्र के उत्तर में स्वागतकारिणी समिति के मंत्री महाशय ने फिर लिखा कि "समिति अति आग्रह से पुनः आप से इसे स्वीकार करने का अनुरोध करती है।" साथही कई इष्ट मित्र और हितैषी सज्जन तथा उदासीन सज्जनों की भी स्वीकार ही के पक्ष में सम्मति पाकर मैं इतने लोगों की आज्ञा उल्लंघन का साहस न कर सका। यद्यपि अपने में इसके अर्थ अपेक्षित योग्यता का सर्वशा अभाव ही पाता, तौभी महाकवि हाफिज के कथनानुसार कि—

"ब मय सज्जादा रंगी कुन् गरत् पीरे मुगां गोयद।
कि सालिक बेखबर न बुबद जि राहो रस्मि मंजिल हा"

अर्थात् यदि धर्माचार्य। कहे तो बिना विचार के तू अपने नमाज पढ़ने के पवित्र बिछौनेको मदिरा में रङ्ग डाल! क्योंकि पथ-प्रदर्शक मार्ग के वृत्त और विधान से असावधान नहीं होता। मुझे लाचार हो इसे स्वीकार करनाही पड़ा।

अस्तु, महाशयो। यहां आप लोगों ने मेरा जैसा स्वागत और सत्कार किया है—जिसे इस जन्म में पाने की मुझे स्वप्न में भी कदापि आशा न थी उसले मेरी रही सही हिम्मत को भी हरा दिया है। मुझे में इतना भी साहस और सामर्थ्य नहीं कि मैं उचित रीति से आप की इन कृपाओं के अर्थ धन्यवाद भी दे सकूँ। मैं यह भी नहीं जानता कि कैसे और किन शब्दों में धन्यवाद देना उचित है। क्योंकि जब कोई सुयोग्य व्यक्ति किसी समाज अथवा सभा से सम्मान पाता है तब वह धन्यवाद देकर अपनी कृतज्ञता अगट करता है। परन्तु जो वास्तव में योग्य नहीं है, वह यदि लोगों से सुयोग्यों