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प्रेमघन सर्वस्व

बालियाँ बोलते है, इसी रीति मनुष्य में अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि और चतुर जनो तथा देवता, ऋषि, मुनि द्वारा वह स्वाभाविक भाषा अर्थात् देव वाणी वा वेद भाषा संस्कार पाकर अर्थात् सुघर कर और सुडौल तथा नियम बद्ध होकर, या नूतन सभ्य की सभ्यता के संस्कार से संस्कृत नाम पड़ा धारण किया, और नवीन दुति के कारण चमक दमक में देववाणी से भिन्न शोभा को प्राप्त भई मानो जटाम (अर्थात् वे साफ लिए रेशम की जटा) से शुद्ध साफ किये रेशम के लच्छे के तुल्य हुई, कि मानों तभी प्रथम मनुष्य ने भाषा में काट छाँट प्रारम्भ किया, उसी ईश्वरी भाषा देववाणी रूपी बीज से प्रथम ही यह संस्कृत' रूपी अङ्कर निकला जिसके पल्लविल वृक्ष की नागरी एक प्रमुख शाखा है।

भाद्र पद १९३८ वै॰ आ॰ का॰