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प्रेमघन सर्वस्व

की भाँति सम्मानित हो, तो उसका क्या कर्त्तव्य है? यदि मैं साहस कर आप महानुभावों की सेवा में केवल एतत्मात्र' निवेदन करूँ कि—मैं आप सब की इस अतुलनीय यत्परोनास्ति कृपा के अर्थ अन्तःकरण से,असंख्य धन्यवाद देता है, तो मेरी आत्मा कदापि संतुष्ट न होगी। अवश्यही आप लोगोंने मुझे एक उपलक्षण मानकर विद्या की अधिष्ठात्री देवी श्रीसरस्वतीजी ही की पूजा की है। जैसे जड़ प्रतिमा को लोग किसी चैतन्य देवता का प्रतिनिधि मानकर उस की अर्चा करते हैं, जिन की पूजा का लक्ष्य कदापि वह जड़ प्रतिमा नहीं है तो भी प्रतिमा का मान देव तुल्य ही होता है। यह मान कितना बड़ा है? इसके अर्थ भी कितनी योग्यता सापेक्ष्य है? मैं इसे सोच और समझ कर किं कर्तव्य विमूढ़ हो रहा हूँ।

मेरे माननीय मित्रों ने मेरी प्रशंसा में अपनी वचन रचना चातुरी दिखा मुझे और भी लज्जित कर दिया है। मैं यह भी नहीं कह सकता कि उन्होंने राई को पर्वत बना दिया है क्योंकि ऐसा कहने से उन पर व्यंग्योक्ति करने का आरोप, अथवा लार्ड कर्ज़न के कथनानुसार अतिरञ्जन का दोष लगाने का दोषी हूँगा। यह सज्जनों का स्वाभाविक धर्म है कि उन्हें सब अच्छा हो अच्छा दिखलाई पड़ता है। सब में सद्गुण ही का भाव भासता और सब की प्रशंसा सौरभ ही जिनके मुखारविन्द से निरन्तर निसुत होता रहता है। परन्तु खेद कि यदि उनके कहने के शतांश भी योग्यता मुझ में होती, तौ भी तुझे इस प्रतिष्ठित आसन के आरोहण का उत्साह होता। मुझे इसका अत्यन्त आश्चर्य और खेद है कि अनेक मुविज्ञ और सुप्रतिष्ठित महानुभावों के होते भी मैं कैसे इस प्रतिष्ठा के योग्य समझा गया हूँ। अब सिवा इसके कि मैं कविवर आनन्दधन जी के उस वाक्य का अ अवलम्ब नहीं पाता। अर्थात्—

"मोसो सुनो तुम्हें जान कृपानिधि! नेह विबाहिबो यों छबि पावै।
ज्यों अपनी रुचि राचि कुबेर सुरंकहि लै निज अंक लगावै॥

तौभी महाशयों! आप लोगा ने जो यह मुझे सुमहत् सम्मान सम्प्रदान क्रिया है, मेरे मानका उसका निर्वाह नहीं है। आपने जो मूल्यवान परिच्छद मुझे पहनाया है, वह इतना ढाला और घिसोहर है कि मैं उसे सँभाल भी नहीं सकता। आपने जिस पणिमय मुकुट को मेर मस्तक पर रक्खा है, मैं उसके बोझे ही से दबा जा रहा हूँ। आपने एक गजराज का भार पिपिलिका पर लादा है। आप लोगों न देशी दीपक से एलेकटिक लाइट की लाशा की