पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४०२

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भारतीय नागरी भाषा

जय जयति जगदाधार सिरजन करत जो संसार है।
छायी अविद्या रासि ते चाह्यो करन उद्धार है॥
पावनि परम निज बेद बानी को करत संचार है।
जग मानवन मन माहिं कीन्या ज्ञान को विस्तार है॥

कहते हैं कि आरम्भ में जब उस त्रिगुणातीत त्रिकालज्ञ परब्रह्म परमेश्वर ने इस जगत की सृष्टि करनी[१] विचारी, तब प्रथम ही उसकी आदि शक्ति ने शब्द[२] की सूष्टि की। वह शब्द प्रशाव था, जिसमें न केवल तीन मात्रा वा अक्षर, वरञ्च त्रिगुणमयी माया, त्रिदेव और त्रिशक्ति, बोही[३] त्रिलोक की सारी सामग्री वीज रूप से अन्तर्हित थी। उसी नीज से क्रमशः समस्त वर्ण, शब्द और तीनों[४] बेद उत्पन्न हुए। सुदराम् चेतन सृष्टि के उत्तमांश प्राणियों में भी उन तीन गुणों के न्यूनाधिक्य के अनुसार स्वतः देवता, ननुष्य और असुर तीनों का विस्तार हुआ।

भाषा की भी वैसे ही दशा' हुई। जैसे एक ही प्रकृति तीन भागों में विभक्त हो, न्यूनाधिक गुणों के कारण एक ही जाति के प्राणियों को ज्ञान कर्म और स्वभाव के अनुसार देवता, मानव और असुर बनाया, उसी प्रकार स्वभाव से उत्पन्न उस एक ही ब्राह्मी बा देक्वाणी अथवा वेद-भाषा को उन तीनों की प्रकृति और उच्चारण ने क्रमशः तीन रूप दिये। मानो मूलभाषा त्रिपथगा की तीन धारा हो बही। अर्थात् (१) देववाणी जो देवता


  1. एकोह बहुस्याम्। श्रुति।
  2. अनादि निधना नित्या वागुत्सुष्टा स्वयं भुवा। महाभारत।
  3. यथा पर्ण पलाशल्य शंकुनैकैन धार्य्याते।
    तथा जगढिदं सर्वङ्कारेणैव धार्य्याते॥ याक्ष बल्क्य।
    प्रण्वाधा यतो बेदा प्रण्वे पर्य्यवस्थितः।
    वाङ्मयः प्रवणः सर्वें तत्मात् प्रणवमभ्यसेत्॥ योगों माक्र्स वल्क्या।

  4. एक एवं पुरा प्रवणः सर्व वाङ्मयः। श्रीमद्भागवत।

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