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भारतीय नागरी भाषा

और विज्ञजनों में अपने यथार्थ रूप में स्थित रही (२) दूसरी जो सामान्य मनुष्यों से यथार्थ न उच्चारित होकर अशुद्ध रूप धारण कर चली (३) और तीसरा असुरों से विशेष विकृत और विपरीत होकर विस्तारित हुई। पहिली का नाम देववाणी वा वैदिक भाषा हुना, जो क्रमशः विद्वानों द्वारा संस्कृत हो अन्त को संस्कृत कहलाई। दूसरी वैदिक अपभ्रंश अथवा मूल प्राकृत। यो ही तीसरी आसुरी, राक्षसी, का पैशाची कि जिसकी अति अधिक वृद्धि हुई और जिसकी शास्त्रायें शावित की सीमाओं को लाँधकर दूर दूर तक पहुँच बहुत विकृत हो क्रमशः मूल से सर्वथा विलक्षण हो गई। इस कारण श्रार्य जाति से पूर्वोक्त केवल दो ही भाषाओं से सम्बन्ध बच रहा। अर्थात् देयवाणी और नरवाणी। ् अथवा वेद भाषा और उसके अपभ्रंश लोक भाषा मे। वैदिक साहित्य में अथास्थान इन तीनों के मूल भाषाओं का अस्तित्व पाया जाता है, जैसे कि संस्कृत के नाटकों में प्राकृतों का।

जानना चाहिये कि सृष्टि वा कल्यारम्भ में मानव सृष्टि के साथ जब ईश्वरीय वाक्शक्ति अर्थात् वाणी वा सरस्वती का प्रादुभाब हुआ, तो स्वभाव ही से दिव्य प्रतिभावान व्यक्तियों के उच्चारण से स्वयं ब्राह्मी भाषा उत्पन्न हुई और दिव्य संस्कार सम्पन्न लोगों से अकस्मात् उसी अर्थ में समझी आने लगी। यो क्रमशः कुछ वाक्य वीजों ही के द्वारा शब्द शस्य की वृद्धिः हुई और वेद का प्रादुर्भाव मुख्य मुख्य महर्षियों द्वारा हो चला। मानी अनादि वेद और उसके ज्ञान का पुनः प्रकाश का क्रम चला। बहुतेरी के चित्त में यह आशङ्का होगी, कि भाषा की सृष्टि भी क्या अकस्मात हो सकती है? और वेद क्या ईश्वर ने बनाये हैं? किन्तु ऐसी आशङ्काओं का श्रत नहीं है और न वे नई हैं। कितनों को सब के मूल जगत् की सृष्टि और सटाही में सन्देह है। हमारे यहाँ भी ब्रह्म, माया, जीव, जगत्, वेद और शब्द सब को अनादि मानकर भी इनका भाव और तिरोभाव[१] माना है। ईश्वर के विषय में भी ग्रारम्भ से अद्यावधि असंख्यों को प्राशा है। यह विषय ही अत्यन्त उच्च और नूढातिगूढ़ है, जो बिना प्राध्यात्मिक शक्ति के समझाई नहीं देता और न हम से सामान्य जनों को इसमें जिह्वा संचालन का अधिकार ही है। अस्तु, यास्तिकों का अपने धर्मग्रन्थों के अनुसार यह विश्वास अन्यथा नहीं कि सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने वेदों के द्वारा मनुष्यों

धाता यथा पूर्वमकल्पयत्। श्रुति।


  1. धाता यथा पूर्वमकल्पयत्। श्रुति।