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प्रेमघन सर्वस्व

को ज्ञान और कर्तव्याकर्तव्य[१] का आदेश किया। कहीं उसे इन्द्र, ब्रह्मा वा कई देवतात्रों और ऋषियों के द्वारा आविर्भूत मानते। किन्तु कती नहीं। आज भी बहुतेरे कारीगर चित्रकार और कवि अपने हाथ को कारीगरी करके भी उसे देख महर्षि वाल्मीकिजी की भांति[२] स्वयं विमोहित हो आश्चर्य करके मान लेते कि यह संयोगात् हमारे हाथों बन गई है, इसमें इतनी योग्यता कदापि नहीं है। इसी से हमारे उच्च कोटि की कविताओं में भी सरस्वती देवी की कृपा मानते हैं। यों ही किसी गुप्त शक्ति की प्रेरणा अनेक स्थलों पर स्वीकार करनी पड़ती है, क्योंकि जिह्वा रहते भी लोग नहीं बोल सकते। बोलने की शक्ति कुछ और ही है और कविता की कुछ और, तथा विशेष चमत्कृत रचना की और है। अस्तु, ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना में अधिक श्राश्चर्य दायक वेद' की रचना नहीं है। और इसमें तो सन्देह किसी को भी नहीं है कि वेद से प्राचीन साहित्य आज लभ्य नहीं है।

अवश्य ही भारत पर नवीन युगका प्रारम्भ हुआ है। नये अन्वेषण और याविष्कार के दिन है? नित्य नये-नये सिद्धान्त स्थिर हो रहे हैं। सात समुद्र पार, सहस्रों कोस की दूरी पर बैठे, पश्चिमीय विद्वान् आज हमारे प्राचीन साहित्य की मनमानी समालोचना कर रहे हैं। वे ऐतिहासिक जांच की ओट में हमारी सभ्यता, आचार, विचार और धर्म पर भी चोट चलाते हैं। कहीं-कहीं अनुमान और अटकल के सहारे' ऐसी-ऐसी अनोखी बातें बलला चलते कि जिनसे भारत का काया पलट अथवा आर्य गौरव सर्वस्व का वारा न्वारा होना सहज सुलभ है। जो यद्यपि सचम्च स्वाभाविक होते हुए भी कितनों ही को भ्रमात्पन्नकारी है। अब यह कौन कह सकता है कि भारत के प्राप्त महामहिसमहर्षि और परम प्रतिभावान् एकसे एक उत्कट प्राचीन पण्डितों द्वारा निश्चित हमारे शास्त्रों के परम्परा माम श्रों और सिद्धान्तों के विरुद्ध उन विदेशियों के अनुमान और प्रमाण बावन तोले पाव रत्ती सटीक और सच्चे ही हैं? अथवा कहीं से कुछ भी उन में असावधानी वा आग्रह का लेश नहीं है


  1. मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

    यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

  2. सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्
    वेदशंव्देम्य एवादी पृथक्संस्थाश्य निर्मम॥