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प्रेमघन सर्वस्व

अनेक ऐसे अमूल्य सिद्धान्त वेदों से आविष्कृत और प्रकाशित किये जिसे सुन वे चौकन्ने हो गये। कई बार आगे भी भारत पर अशानान्धकार और विपरीत विचार का अधिकार हो चुका है, किन्तु फिर यथार्थ ज्ञान सूर्योदय ने उसे छिन्न भिन्न कर दिया है। जब तक वह दिन न आ जाय, हमें धैर्य धारण पूर्वक अपने सहस्त्रों वर्षों से चले आते सच्चे सिद्धान्त और विश्वास से टसकना न चाहिये। आप लोग क्षमा करें कि मैं प्रकृत विषय से बहक कर व्यर्थ बहुत दूर जा पहुँचा।

निदान देववाणी क्रमशः व्याकरण और साहित्य के विविध अंगप्रत्यङ्गों से युक्त हो इतनी उन्नत अवस्था को पहुँची कि आज भी संसार की भाषायें अनेक अंशों में उसके आगे सिर झुका रही हैं। प्रारम्भ में वही यहाँ की सामान्य भाषा वा राष्ट्रभाषा थी। फिर राज भाषा अथवा नागरी भाषा हुई क्योंकि क्रमशः व्याकरण के नियमों से वह ऐसी जकड़ दी गई कि केवल पढ़े लिखे लोगों ही से बोली और समझी जाने योग्य रह गई, जिसके पढ़ने के अर्थ मनुष्य की आयु भी पर्याप्त नहीं समझी जाती थी, मानो वह उन्नति की चरम सीमा को पहुँच गई। इसी से उसे की शिक्षा के अर्थ उस दूसरी लोक भाषा को भी सुधारने और नियम बद्ध करने की आवश्यकता या पड़ी। भाषा बैदिक अपभ्रश वा मूल प्राकृत थी. जो बुध जन और विद्वानों से क्रमशः परिभाजित होकर आप प्राकृत कहलाई। मानो तभी से सेकेण्ड लैंगबेन (Second language) का सूत्रपात हो चला।

बहतेरों का मत है कि—प्राकृत ही संस्कृत की उत्पत्ति हुई है क्योकि वेदों में भी गाथा रूप से इसका अस्तित्व पाया जाता है और संस्कृत नाम ही मानो इस का साक्षी देता है। परन्तु यह केवल भ्रम है, जो प्राकृत व्याकरणों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर सर्वथा दूर ही जाता है, क्योंकि। सदैव संस्कृत ही का अनुकरण करते, संस्कृत ही से प्राकृत बनाने की विधि को विधान बतलाते और प्रायः देववाणी वा संस्कृत ही से उसकी सृष्टि की सूचना देते हैं। सारांश सस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं।

निदान इस प्रकार वह परिमार्जित वैदिक अपभ्रंश भाषा वा आर्य प्राकृत, जिस की क्रमशः अनेक शाखा प्रशाखायें होती गई, संस्कृत के प्रचार की न्यूनता के संग राष्ट्रभाषा बन चली और इस देश के चारों ओर विशेष विस्तृत हो प्रान्तिक प्राकतों से मिलती जुलती वही अन्त को महाराष्ट्री प्राकत