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भारतीय नागरी भाषा

भी कहलाई। उस समय तक केवल पवित्र वैदिक धर्म ही की धूम थी। गुरुकुल, परिषद् और पाठालयों में वेद ध्वनि का गुञ्जार और सत् शास्त्रों का अध्ययनाध्यापन होता रहा। चारो वर्ण और आश्रम अपने अपने धर्म पर स्थित थे। सुख स्वास्थ्य और आनन्द उत्सव का आश्रम यही देश बन रहा था।

पै[१] कही न जाय, दिनन के फेर फिर सय।
दुरभागनि सो इत फैले फल फूट वैर जब॥
भयो भूमि भारत में महा भयंकर भारत।
भये वीरवर सकल सुभट एकाहे संग शारत॥
मरे बिवुध नर नाह सकल चातुर नुन मण्डित।
विगरो जन समुदाय बिना पथ दर्शक पण्डित॥
सत्य 'धर्म के नसत गयो बल, विक्रम साहस।
विद्या बुद्धि विवेक विचाराचार रह्यो जस॥
नये नये मत चले, नये गरे नित बाढ़े।
नये नये दुख परें सीस भारत रै गाढे॥

यही ब्राह्मणों की अदूरदर्शिता थी कि उन्होंने पहले पिछले काटे लोक भाषा में धर्म की शिक्षा का क्रम नहीं चलाया था, जिस कारण सत्य धर्माचार शिथिल हो गया और नाना प्रकार के अनाचारों का प्रचार हो चला था, जिस के संशोधन के अर्थ लोग उद्यत हुए। नये नये प्रकार के धर्म और आचार-विचार की शिक्षा सुनकर, अपने धर्म से अनभिज्ञ जन अचाञ्चक बहक चले।

बौद्ध धर्म के इंके बजने लगे। संस्कृत का पठन पाठन छूटा! प्राकृत के दिन लौटे। वह राष्ट्र और राज भाषा को छोड़ कर धर्म की भी भाषा बन चली! आर्ष प्राकृत वा महाराष्ट्री अर्द्ध मागधी और पाली रन, भाषाओं की मा[२] कहलाने का दावा कर चली। महाराज प्रियदर्शी अशोक के प्रताप के संग यह भी दूर दूर तक अपना अधिकार जमा चली। क्योंकि जब बुद्धदेव प्रगट हुए, प्रचरित देश भाषा ही में वे अपना उपदेश कर चले। संस्कृत में


  1. मेरे "हार्दिक हर्षादर्श"नामक पुस्तक में।
  2. सामागधी मूलभाषा नया या आदि कप्पियका ब्राह्मण चाम्सुतालावा सम्बुद्धा चापि भासिरे॥