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भारतीय नागरी भाषा


निदान हमारी भारतभारती की शैशवावस्था का रूप ब्राह्मी वा देववाणी है। उसकी किशोरावस्था वैदिकभाषा, और संस्कृत उसकी यौवनावस्था की सुन्दर मनोहर छटा है। उसकी प्रथम पुत्री गाथा वा प्रधान प्राकृत थी। वैदिक अपभ्रंश भाषा शैशवावस्था, आर्य प्राकृत किशोरावस्था, और महाराष्ट्री तथा प्रान्तिक प्राकृतै यौवनावस्था है। उसकी दूसरी पुत्री वा शाखा पैशाची वा आसुरी की अनेक ओर अनेक शाखायें फैली। जैसे पश्चिमी की क्रमशः पुरानी पारसी पहलवी वा वर्तमान फारसी और पश्तो आदि हैं, जिन से यहां हमें कुछ प्रयोजन नहीं है। प्रान्तिक प्राकृतों की भी अनेक शाखायें फैली, जिनसे वर्तमान प्रचरित भाषाओं की उत्पत्ति है। उन का प्रथम रूप प्रान्तिक प्राकृते, दूसरा उन के अपभ्रंश और तीसरी वर्तमान भाषायें हैं। जैसा कि हमारी भाषा का आदि रूप शौरसेनी[१] वा अर्द्धमागधी, तो दूसरा नाम[२] अपभ्रंश और तीसरा, प्राचीन भाषा है। औरों से यहां कुछ प्रयोजन नहीं है, इसी से हम केवल अपनी भाषा के रूपों और अवस्थाओं ही का क्रम कहते हैं। अर्थात्,—

वर्तमान हमारी भाषा का प्रथम रूप वा उस की शैशवावस्था पुरानी भाषा अर्थात् प्राकृत-अपभ्रंश मिश्रित भाषा है। जिस की झलक आज चन्द बरदाई के पृथ्वीराज रासो में पाई जाती है। उसकी यौवनावस्था का दूसरा रूप भाषा वा ब्रजभाषा अथवा मिश्रित भाषा है। जिसका दर्शन कबीर, सुर, केशव, " खुसरो, जायसी, तुलसी, विहारी और देव, द्विजदेव दि की कवितानों में हम आते हैं। इसे किशोरावस्था और क्रमशः उसकी नव यौवनावस्था भी कहें, तो कुछ हानि नहीं। तीसरी अवस्था इसका वर्तमान रूप है। जिस के या के कवियों में देव स्वामी, बाबू हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्न, अम्बिकादत्त व्यास, श्री निवासदास और श्रीधर पाठक आदि, योंही गद्य के लल्लू जी लाल, राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेन्दु और वत मान समय के अन्य सुलेखक हैं। जिसे उस की पूर्ण यौवनावस्था वा प्रौढावस्था भी कह सकते हैं।


  1. शौरसेनी अर्द्ध मागधी के मूल रूपों में केवल दो ही अक्षरों के उच्चारण का भेद है।
  2. नगरस्तु महाराष्ट्री शौर सैव्योः प्रतिष्ठितम्। प्राकृताष्टाध्यायी