पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

ऋतु वर्णन

[प्रकृति चित्रण में प्रेमघन जी ने परम्परागत शैली का जहाँ पर निरूपण किया है वहाँ पर तो रीतिकाल का आभास मिलता है। पर उन्होंने प्रकृति को पोषक और संहारक, दो रूपों में विभक्त किया है। प्रकृति का निरीक्षण, प्रकृति का जड़ और जंगम पर प्रभाव लेख में स्पष्ट है। समन्वय की भावना का लेख में अमिट छाप है।]

रसिको! जिस उपद्रवी हिम ऋतु के आगमन से संसार मैला, कुचँला, छवि हत, और कूड़ा करकट से भर गया था, विचारे शिशिर ने स्वयम् तीक्ष्ण वायू की झाडू हाथ में लेकर और मानापमान का कुछ भी ध्यान न कर पीले और सूखें पत्ते वृक्षों और लताओं, से दूर कर इस असंख्य कड़े को दिशाओं के अन्त में अर्थात् (ईश्वर के म्यूनिसिपल के सीमा के बाहर) जा फैंका, और बाँसों को भी रगड़ रगड़ कर भाग निकाल समस्त भूमि की छविहत सूखी घास जला उसके राख का भी लेश पूर्वोक्ति रीति से न रक्खा।

चटपट वसन्त आकर सजावट और बनावट की सामग्री नाना प्रकार के आरम्भ में लगाकर, तुरन्त सब कुछ सब प्रकार सुशोभित किया; फूलने वालों को नूतन पल्लव से पल्लवित और फलने वाले वृक्षों को कुसमित कर आशा की, कि देखों सब प्रकार पुष्प फल युक्त हो ठीक रहो; निदान इस रीति सावधानी से सब को सावधान कर अपने सहायक ग्रीष्म को नियुक्त कर आप तो कर्पर सौरभ समान चल बसा, कि कोयले कूक कूक कर लगी आशा सुनाने।

कि अरे सावधान! देखो देखो ये जो छंद्र जलाशयों के बचे बचाये यत्किंचित शेष जल दुर्गन्ध युक्त हो कष्ट के कारण हुए थे, यद्यपि उसे सोख सूर्य ने सुखाया, परन्तु मृत्तिका का भी हृदय शुष्क रहने योग्य है, कि जो सुगन्धि का कारण हो; ये आम्र के हरित फलों को तुरन्त पीतकर वृक्षों की नूतन पत्रावलियों को जिनपर अभी हरा रङ्ग दिया गया है सुन्दर तीक्ष्ण धूप में सुखा कर उस पर शीघ्र शोखी और निखराहट की वार्निश फेरा कि रङ्गत खुल पड़े।

देखों पुरवाई ऐसी तीक्ष्ण गति से चली मानों रेल का वेग बन गई, पड़ वृष्टि के मिस धूम आकाश में छाया, झिल्लियों ने सीटी बजाया, वाह विद्युत्