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भारतीय नागरी भाषा

जब वह सामान्य जनों की भाषा न रही, वरञ्च प्रश्वान भाषा प्राकृत हुई, तो उस का नाम देववाणी, वैदिक भाषा और संस्कृत हुआ और यह भाषा ही कहलाती रही। जब इसके भी भेद हो चले और प्रान्तिक भाषायें नये नये रुप बदलकर नवीन नामों को धारण कर चली, तो वह आर्य प्राकृत या महाराष्ट्री, योही भिन्न भिन्न प्रान्तों के नामों में प्रान्तिक भाषायें पुकारी जाने लगी। किन्तु हमारे मध्य देश की प्रधान भाषा भाषा ही कहलाती रही, जिस के पश्चिमी छोर पर शौरसेनी, पूर्वी सीमा पर मागधी का अधिकार था, यही दक्षिण में बावन्ती दाक्षिणात्या और उत्तर में उदीची का प्रचार था। बीच के पूर्वी भाग की भाषा को अर्द्ध मागधी भी पुकारते थे, योही पश्चिमी को अर्द्ध शौरसेनी वा नागर। परन्तु ये सब विशेषण उन्हीं भाषायों के प्रचार के साथ हुए जैसे कि आज ब्रजभाषा, मिश्रित भाषा, हिन्दी, नागरी, खरी बोली, अथवा उसके अनेक भेद, जो बहुधा आज केवल विभेद बढ़ाने ही के लिये बढ़ाकर कहे जाते हैं। क्योंकि स्थानिक बोलियाँ भाषा नहीं कहलायेंगी। भाषा वही है कि जिस में उन सब स्थानों वा प्रान्तों के सभ्यजन अदल में मिलकर एक दूसरे से बात करते हों, वा जिसका कोई पृथक साहित्य हो। यों तो इस महादेश की बोलियों के सम्बंध में यह कहावत है कि—"दस बिगहा पर पानी बदलै, दस कोसै पर वानौ!"

अस्तु, हमारी भाषा और सब प्रान्तिक भापात्रों से प्रधान[१] और प्राचीन[२] है, तथा एक लेखे यही सब की जननी है। क्योंकि सामान्यतः संस्कृत और विशेषतः प्रधान वा महाराष्ट्री प्राकृत से इसका अद्यावधि साक्षात् सम्बन्ध वर्तमान है। पीछे से पड़ा, इस का हिन्दी नाम भी यही राक्षी देता है, अर्थात् वह भाषा कि जो समस्त हिन्द वा हिन्दोस्तान की हो। अवश्य ही यह शब्द


  1. डाक्टर राजेन्द्र लाल मित्र कहते है कि हिन्दी अत्यंत महत्व की भाषा है। यह हिन्दू जाति के सब से सुरक्षित लोगों की भाषा है।
  2. सुप्रसिद्ध बीभ्स साहीब (Beams) कहते हैं कि—"आर्यों की सब से प्राचीन भाषा हिन्दी ही है और इस में तद्भव शब्द सभी भाषाओं से अधीक हैं। सर विलियम जोन्स का मत हैं कि—उत्तर भारतवर्ष की भाषा की आदि भाषा है। मि॰ पिनकाट लिखते हैं कि—उत्तर भारतवर्ष की भाषा सदा से हिन्दी थी और अब भी है।