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प्रेमघन सर्वस्व

बहुत ही विवादग्रस्त और विदेशी है। तथा एक प्रकार से हमारी प्रचलित साधु भाषा के अर्थ में तो नितान्त भ्रामक है, क्योंकि इसकी व्याप्ति बहुत विस्तृत है। सामान्य रूप से यह भारत की भाषामात्र का बाची है। यदि हम इसे अपनी भाषा में रुढ़ि मान लें, तौभी यह ठीक अर्थ नहीं देता, वर अपनी शारक्षा स्वरूप अनेक प्रान्तिक भाषाओं में भ्रम डालता है और बिना विशेषण के अर्थ का ठीक ठीक बोध नहीं होता।

बहुतेरे लोग हिन्द, हिन्दोस्तान, हिन्दू और हिन्दी नामों को अत्ति आग्रह से अपनाना चाहते और उस पर अपना विशेष अनुराग दिखाते हैं। परन्तु जो अपना हुई नहीं है, वह अपनाने से अपना कैसे होगा! कोई हिंन्दव में हिन्दू सिद्ध करते, तो कोई शिव रहस्य[१] वा मेरु तंत्र के नवीन प्रक्षित श्लोकों[२] के आधार पर उसका विचार करते हैं। कोई हिंसा वा हीनाचार दूषक अर्थ कर इसे प्रशंसा वाचक मानते, तो बहुतेरे सिन्धु शब्द के उच्चारण भेद में, पारसियों से स के स्थानपर हे बोलने का उदाहरण देकर, सिन्धु नदी के इस पार के देश को हिन्द कह कर इस के अर्थ में कुछ हीनता नहीं मानते, और महाराणा उदयपुर के हिन्दूपति बादशाह की पदबी का उदाहरण देते अपने को हिन्दू धम्मावलम्बी कहने में कुछ भी दोष नहीं मानते हैं। परन्तु हमारी समझ में नहीं आता है कि कौन सा इस में ऐसा गुण है कि जिससे हम अपने देश, जाति, धर्म और भाषा के मूल, वा नाम ही में इतना विवाद वा अशुद्धि रक्वें और बिसमिल्लाही गलत की मसल को सच कर दिखलाये।

क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि न यह हमारे यहाँ का शब्द है और न हमारे पुराने संस्कृत ग्रन्थों में इस का कहीं व्यवहार ही हुआ है। यह हिन्द वा हिन्दू शब्द पारसी भाषा का है और चाहे प्रारम्भ में सामान्यतः यह सिन्धु नदं पारवाले देश था उस के निवासी मनुष्यों ही का वाचक क्यों न माना गया हो, परन्तु कुछ दिनों पीछे, विशेषतः मुसल्मानों के भारत विजय के अनन्तर यह शब्द घृणा वा चक अवश्य ही माना गया। इसके अर्थ के साथ काफिर, काला गुलाम और चोर का सम्बन्ध अनिवार्य है। काफ़िर का धर्म विरोध के कारण स्वाभाविक


  1. हिन्दू धर्म प्रलोप्तरौ भविष्यन्ति कलौयुगे।
  2. हिन्दू धर्म प्रलोप्तारौ जायन्ते चक्रवर्त्तिनः। अथवा—दीनञ्च दुषयत्येक हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।