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प्रेमघन सर्वस्व

हुए, तब मध्यदेशीय परिष्कृत भाषा का नाम नागर पड़ा, जिससे नागर जाति से कुछ सम्बन्ध नहीं, वरञ्च नागरिक जनों की नागरी भाषा से तात्पर्य है। प्रान्तिक प्राकृतें तब व्याकरणों के नियमों से नियन्त्रित होकर केवल ग्रन्थों ही में रह गई थीं। पिछले समय के साहित्य की भाषा हमारी प्राचीन भाषा ही थी, वही नागरी वा राष्ट्रभाषा थी। यदि उस समय भारत की कोई प्रधान राजधानी होती, वा यहाँ का कोई चक्रवर्ती राजा होता तो उसकी भी बहुत उन्नति होती। हुई भी हो, तो उस का पता नहीं, क्योंकि उस समय का साहित्य दुर्लभ है। जब कि लोगों के प्राणों के लाले पड़ रहे थे, साहित्य की उन्नति और रक्षा की किसे सूझ रही थी। हमारी भाषा के कुछ कवियों वा उनके ग्रन्थों के जो नाम भी सुने जाते हैं, तो वे देखने में नहीं आते। जैसे कि—वैक्रमाब्द ७७० में हुए, पुष्य कवि का काव्य, वा ८१२ के चित्तौराधीश महाराणा खुमान का रासौ, योंही केदार, कुमारपाल और अनन्य दासादि के काव्य दुर्लभ हैं। निदान महाराज पृथ्वीराज के कवि चन्द बरदाई का रासौ ही हमारी भाषा का अति प्राचीन ग्रन्थ लभ्य होता है, जिसकी भाषा को सम्यक् प्रकार से समझनेवाले आज बहुत ही कम ला मिलेंगे। तौभी वह हमारा एक अमूल्य रत्न है। वहीं वैक्रमाब्द की बारहवीं शताब्दी पर्यन्त के साहित्य वा भाषा का भण्डार है। भाषा ही उसका भी नाम था। जो क्रमशः सँवर और सुधरकर मध्य कालीन भाषा वा उस समय की प्रधान नागरी भाषा थी, जिसका नाम पीछे से ब्रज भाषा भी रक्खा गया और जिसके साहित्य में एक से एक चमकीले बहुमूल्य रत्न अद्यावधि हमारे अभिमान और सन्तोष की सामग्री हैं। आज भी जिसके साहित्य का स्रोत मन्दगति से प्रवाहित होता हमारे देश के असंख्य सहृदय साहित्य रस तृषितों के परितोष का हेतु है।

आज तक हमारी भाषा का कई बार संस्कार हो चुका है। पहला संस्कार देववाणी का हुआ, जिसमें मिले लोकभाषा अथवा मूल प्राकृत के व्यर्थ और भद्दे प्रयोग जो व्यवहार में आते थे, निकालकर वह परिष्कृत और शुद्ध करके संस्कृत बनाई गई। दूसरा जबकि प्राचीनभाषा से प्रान्तिक प्राकृतों के उद्देशय निकालकर साधु प्रयोग मात्र, योही संस्कृत के भी केवल कोमल औ क शब्दों ही से सम्बन्ध रखकर ब्रज के मधुर मुहागिरे और मनोहर शैला स्वाकृत हो, साहित्य के लालित्य का हेतु मानी जाकर उस समय की अचान नागरी भाषा बनी। यहाँ तक केवल स्वदेशी ही शब्दों की काट छाँट