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प्रेमघन सर्वस्व

बना लेता है, कि जो पढ़ने और सुनने में कर्कश वा अनोखा नहीं ऊँचता और न उससे प्रायः उसकी भाषा दूषित ही होती है। किन्तु गद्य लेखक ऐसा न कर प्रायः स्वपरिचित शब्दों से बिना विचार के काम लेता चला जाता है। अतः उसकी असावधानी से प्रायः भाषा का रूप ही बदल जाता और वह भद्दी और विभिन्न सी हो जाती है। इसी कारण पहिले छन्दों में विदेशी शब्द मिलकर भी कुछ हानि न कर सके और भाषा का रूप बिगड़ न सका। किन्तु जब से गद्य लिखने की अधिक चाल निकली, हमारी भाषा के कई रूप और नाम बन गये। जैसे बोल चाल की हिन्दी, लिखने पढ़ने की हिन्दी, साहित्य की हिन्दी, शुद्ध हिन्दी, अशुद्ध हिन्दी, मिश्रित हिन्दी, नांगरी, उर्दू, हिन्दुस्तानी, खरी-बोली, इत्यादि

महाशयो, भारत में राज्यविप्लव के साथ साथ भाषा में भी विप्लव प्रारम्भ हुआ है। जहाँ केवल एक जाति के लोग रहते थे, दूसरे दूसरे देशों के लोग भी आ बसे। राजा की जाति होने से उनकी प्रधानता भी हुई। यहाँवालों से उनसे नित्य की बात चीत और व्यवहार से भाषा में बड़ा परिवर्तन हो चला। अगले दिनों में भिन्न भिन्न छोटी छोटी प्रान्तिक राजधानियों की प्रान्तिक भाषायें अपने अपने प्रान्तों में राज करती रही, उन्हें अधिक विस्तृत होने का अवसर भी ना था, परन्तु व विदेशी राजा का एक साम्राज्य होने के कारण विदेश और देश के भी भिन्न भिन्न प्रान्त के लोगों के एकत्र होने से एक ऐसी भाषा का विस्तार हो चला कि जो उनकी राजधानी की स्थानिक भाषा थी, और जो नित्य विदेशी शब्दों के बोझ से दबती जाती थी। विदेशी नुसल्मान और स्वदेशी आर्य-सन्तान चाहे वे देश के किसी प्रान्त के क्यों न होते, राजधानी की स्थानिक भाषा ही में राज दरबार में बोलते और उसी भाषा में नित्य के काम काज के सम्बन्ध में लिखते पढ़ते थे। ये भारत के किसी अन्य प्रान्त में भी जाते, तौभी इसी नियम को निभाते थे। यही उस स्थानिक भाषा के राष्ट्र भाषा बन जाने का भी कारण हुआ

यद्यपि मुसल्मानों का राज्य यहाँ दृढ़ हुआ, तौभी हमारी भाषा को तब तक लाभ छोड़ हानि नहीं पहुंची थी। वरञ्च राजभाषा पारसी के नीचे. हिन्दी नाम से हमारी भाषा ही में अधिकांश राज काज होता रहा और किसी प्रकार इसके रंग रूप में विशेष अन्तर नहीं आया। मुसल्मान लोग आपस में तो अपनी ही भाषा बोलते थे और यहाँ वालों से हमारी भाषा में, योंही