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भारतीय नागरी भाषा

इस देश के लोग स्वभावतः आपस में अपनी निज ही भाषा में बोलते और लिखते पढ़ते थे। किन्तु हमारे भाई सदा से अपनी हानि का श्री गणेश प्रायः स्वयम् ही करते आये हैं। अकबर के समय उसके मन्त्री राजा टोडरमल ने राजस्व विभाग का नया प्रबन्ध करने के साथ ही साथ इस देशवालों को पारसी पढ़ने पर बाध्य किया। कदाचित् उनका यह विचार था कि बिना राजभाषा के सीखे हमारे भाई राज्य के बड़े बड़े पदों पर नियुक्त न हो सकेंगे। राजभाषा में प्रवीण ही वे अवश्य ही कुछ अच्छे अच्छे पद प्राप्त कर सके, परन्तु उस से हमारी भाषा की उन्नति में बड़ी बाधा पड़ी ज्यों ज्यों पारसी पढ़ने का प्रचार बढ़ा, इधर से रुचि बट चली। राजभाषा होने के कारण सब छोटे बड़े पारसी पढ़ चले। केवल ब्राह्मण और धार्मिक आव्यसन्तान संस्कृत और बन्दी जन भाषा काव्यादि का पटन पाठन और काव्यरचना करते रहे। उनके संसर्ग से भद्र समाज में औरों को भी इसका अनुराग न्यून न था। बहुतेरे साधु महात्मा और वैष्णव, विशेषतः बल्लभ सम्प्रदाय के लोग अपने भजन और विष्णुपद इस भाषा में रचते रहे। पहले बादशाही दरबार में भी इसका बड़ा आदर और सम्मान था। भाषा के कवित्त रचे, पढ़े, सुनाये, और गाये जाते थे। अकबर बड़ा उदार गुण ग्राहक, नीति निपुण और विद्या प्रेमी था। सबी भाषा के बड़े बड़े विद्वान् और कवि उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे। हमारी भाषा से भी उसे बड़ा अनुराग था। इन भापा के भी अनेक सुकबि सदैव उसके मनोविनोद की सामग्री थे। उसके प्रधान अधिकारियों, प्रामात्यों और पार्षदवों में भी भापा के सुकवि वर्तमान थे। जैसे कि राजा बीरबर और अब्दुर्रहीम खानिरखाना आदि। स्वयम् भी बड़ भाषा की अच्छी कविता करता था, उसकी कुछ भाषा कवितायें आज भी उपलब्ध होती है। जैसे कि—

"शाह अकब्बर एक समै, चले कान्ह बिनोद बिलोकन वालाहँ।
आहट सो अबला निरख्यो चकि चाँकि चली करि आतुर चालहि॥
स्यों बलि वेनी सुधारि धरी, सुभई छबि यों ललना अक लालहिं।
चम्पक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिये अहिबालहि॥
अथवा—
शाह अकबर बाल की बांह अचिन्त गही चलि भीतर भौने।
सुन्दरि द्वारहि दृष्टि लगाय के भगिवे की भ्रम पावत गौने॥