पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९२
प्रेमघन सर्वस्व

का प्रतिरूप था। वह भी भाषा कविता करता था। यथा औरंगजेब के अत्याचारों से दुखी होकर उसने बह कविक्ष बनाया थाः—

"जन्मतही लख दान दियो अरु नाम धरयो नवरङ्ग बिहारी।
बालहिं सो प्रतिपाल कियो अरु देश मुलुक दियो दल भारी॥
सो सुत बैर बुझैं मन में धरि हाय दिवो बँध सारि मैं डारी।
शाहजहाँ बिन हरि सो बलि राजिवनैन रजाय तिहारी॥

यद्यपि साहित्य की भाषा में अनेक सुकवियों के द्वारा एक प्रकार उन्नति ही होती रही, तौभी बोल चाल की भाषा में बहुत भेद पड़ गया था। क्योंकि प्रथम जो अनेक प्रदेश और प्रान्तों के मनुष्यों के एकत्रित होने से मूल भाषा के मुशाबिर बदल चले, और न केवल विदेशी शब्दों ही की भरमार होने लगी, बरञ्च विदेशी भावों का भी सन्निवेश हो चला था। ऐसा क्यों न होता, जब कि सभ्य समाज में एक नवीन भाषा का अधिकता से प्रचार हो गया। परा द्वार पर मौलवी लोग बैठ गये। पण्डित और गुरू जी की गद्दी उनके दखल में आ गई। विद्यारम्भ मुहूर्त के समय श्रीगणेश की जगह बिस्मिल्लाहुर्रहमानुरहीम का घोष होने लग चला। सभ्यता का रंग बदला। कहा गया है कि "यथा राजा तथा प्रजा" "और राजाहियुगमुच्यते।" अब लोगों में ईरानी चाल ढाल भी चली। क्या पोशाक लिबास और क्या अदब व कवायद, सब में नया रंग ढंग गुरुगू में भी नई तराश व खराश आई। ऐन, गैन, शीन, कान और जे, ज्वाद का स्वाद ज़बान चख चली और कान इनके आशना हुए। पाँव गाँव के सब कार्य सदा से कायस्थों के हाथ था। क्या राजा और क्या कमींदार सब के दफ्तर का काम यही करते थे। सामान्य लिपि का नाम ही कथी आ, जैसे कि देवनागरी बभनी कहलाती थी। जिस भाँति ब्राह्मणों से संस्कृत का सम्बन्ध था, कायस्थों से वैसे ही देशी भाषा का, जो मौलवियों के पूरे देले बन गये थे। अब वे संस्कृत को शंसकीरत, ब्राहाण को बरहमान, समुद्र को समन्दर, और सूर्यनारायण कों सूरजनरायन कहने लग पड़े थे। इन के गुरू यदि गुरबख्श थे, तो चेले चीनी परशाद हो पाये, जिन की मीठी बातें सुन लोग ऐसे मोहित हुए कि हजर और गरीनिवाज को छोड़ श्रीमान और महाराज शब्द सुनना भी गवारा न करते। सबी भद्र समाज में इन्ही गुरू चेलों का राज सा हो गया, जिस कारण नित्य के व्यवहार की भाषा बिलकुल ही बिगड़ गई। अधिकांश शिक्षितों के खत किताबत में भी फारसी का प्रचार हुआ। गुप्त वाते लोग