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भारतीय नागरी भाषा

फारसी ही में करते। जैसे आजकल अङ्गरेजी का विस्तार हो रहा है। चार शिक्षितों, विशेषतः विद्यार्थियों को अपनी भाषा में भी बोलते समय जैसे सामान्य स्वदेशियों को उनका आशय समझना कठिन होता है। कुछ कुछ ऐसी ही दशा तब उपस्थित हो चली थी, जिसे हमारी भाषा का नवीन काया पलट कहना भी अन्यथा नहीं है। क्योंकि संस्कृत प्राकृत और फ़ारसी को छोड़कर भी तब कई प्रकार की भाषायें प्रचलित हो गई थी। अर्थात् एक बोल चाल को सामान्य भाषा, जो दिल्ली और आगरे की सम्मिलित, अनेक अन्य देशी शब्दों और मुहाविरों से मिश्रित थी। जिसकी अब प्रधानता होने लगी थी और जो सभ्य वा नागरी भाषा बन राष्ट्र भाषा बनती हुई, अपनी भाषा पुरानी प्रधान भाषा का नाम ब्रज भाषा देकर, उससे पृथक हो चली थी। जिसके दो भेद थे। एक पारसी शिक्षितों की भाषा, जिसका नाम रेखता था और जिसमें विदेशी शब्द अधिक होते थे। दूसरी जिसे विदेशी लोग हिन्दी कहते थे और जिस में विदेशी शब्द न्यून होते, केवल मुहाविरात ही नये थे। योही साहित्य की तीन भाषायें थीं, अर्थात् एक तो यह मुख्य भाषा जिसे अब लोग ब्रज भाषा पुकारने लगे थे, जो अपने उसी पुराने रंग रूप और अक्षरों में आज तक चली पाती है। दूसरी जो नवीन प्रचलित मिश्रित भाषा की शैली में विदेशी भावों और छन्दों में थोड़ी बहुत कविता बन चली थी और जो नागरी अक्षरों में भी लिखी जाती थी। तीसरी जो कुछ विशेष विदेशी शब्दों के मेल से फारसी ही अक्षरों में लिखी जाती थी, जिसे मुसलमानों की हिंदी बोल चाल की भाषा कहनी चाहिये कि जिस का नाम आज उर्दू कविता वा शायरी है। ये पांचों क्रम अद्यावधि कुछ थोड़े बहुत परिवर्तन के सहित प्रचलित हैं।

पारसी अक्षरों में तब तक प्रायः गद्य और पद्म भी पारसी भाषा ही में लिखे जाते थे, तौभी कुछ कुछ अंश में उर्दू में भी कविता हो चली थी। किन्तु उर्व में गध का व्यवहार तो नहीं के तुल्य था। उभय प्रकार के अक्षरों और भाषाओं में गद्य लिखने की चाल अगरेजी राज्य और यन्त्रालयों के प्रचार के संग ही प्रचलित हुई, जिस की अब निरन्तर वृद्धि हो रही है। सुतराम् पूर्वोक्त दोनों भिन्न भिन्न अक्षरों में लिखी जाने वाली उभय प्रकार की माषानों के दो दो रूप हो गये। जैसे हमारी भाषा का मिश्रित रूप कि जिस में अरबी, फ़ारसी वा तुर्की, और अब अंगरेज़ी के भी शब्द अधिकता से काम में लाये जाते और जो हिन्दी कहलाती है, जिसे उर्दू की छोटी बहन