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प्रेमघन सर्वस्व

कहना चाहिये। दूसरी वह कि जिस में यथाशक्ति देशी शब्दों से काम लिया जाता और उन शब्दों को छोड़ कि जो हमारी भाषा ही के रंग में रंग चुके है, अपरिचित और बेडौल विदेशी शब्दों का सन्निवेश नहीं किया जाता, जिसे साधु वा नागरी भाषा कहते हैं। उसी को इस का अन्तिम संस्कार वा सुधार कहना चाहिये।

हम ऊपर कह पाये हैं कि हमारी भाषा के प्रधान तीन रूप हैं, उस में प्रथम प्राचीन रूप कि जो वैक्रमीय १२ वीं शताब्दी तक प्रचलित था, उस के न जाने कितने कवि हुए होंगे कि जिन की कविता वा उन के नाम का भी पता अब नहीं है, तौभी उस के प्रधान कवि चन्दबरदाई का बनाया महाकाव्य पृथ्वीराजरासौ आज हमें उपलब्ध होता है। उसकी कविता का रूप और गुण का आख्यान यद्यपि संक्षेप में नहीं हो सकता और यद्यपि उस के प्रबन्ध के आनन्द का अनुभव भी अब हम यथार्थ रीति से नहीं कर सकते, तौभी कह सकते हैं कि वह हमारे सब कवियों का राजा वा गुरू है। क्योंकि पिछले कवियों ने अनेक अंशों में न केवल उस का अनुकरण ही किया है, वरञ्च कुछ ने तो प्रत्यक्ष चोरी भी की है। उस में महाकवि के सबी गुण वर्तमान थे। वह न केवल संस्कृत वा प्राकृतों का अच्छा पण्डित ही था, वरश्च अनेक शास्त्रों का ज्ञाता और प्रायः पुराने साहित्य से पूर्ण परिचित था। वह जिस विषय वा रस का वर्णन करता है, उसमें अपनी योग्यता का पूर्ण परिचय दे देता है। क्या प्राचीन इतिहास और क्या धर्म, क्या नीति और क्या ज्योतिष, क्या वेदान्त और क्या योग, सबी को यथावसर उसने उचित स्थान दिया है एवं काव्य का कोई अंश अछूता नहीं छोड़ा। शब्दों की सजावट और अर्थ की गम्भीरता के सहित सुहाती उपमा और उत्प्रेक्षाओं को अपनी कई शैली की भाषा और विविध छन्दों में दिखलाता वह सहृदयों के मन को सहज ही लुभाता है। उस की रचना के सम्बन्ध में जिन अंशों से हमें विरोध है, यहाँ उस के आख्यान की कुछ आवश्यकता भी नहीं है। यद्यपि स्थान का संकोच है, लौभी हम यहाँ उसकी कविता के कुछ उदाहरण देते हैं। यथा,—

दशावतार का नाम स्मरण।

चौपाई। मछ्छ कछछ बाराह प्रनम्मिय। नारसिंघ वामन फरसम्मिय।
सुअ दशरथ्थ हलद्वर नम्मिथ। बुद्ध कलंक नमो दद्द नम्मिय॥