पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९५
भारतीय नागरी भाषा

अनङ्गपाल को पृथ्वीराज का उत्तर कि दिल्ली हम नहीं फेरेंगे,—

जलद बूंद परि धरनि, कबहुँ जावै न नभ्भ फिर।
पवन तुहि तरु पत्र, तर न लग्गै सुभाइ थिर॥
तुटि तारक श्राकास, बहुरि श्राकास न जाऔ।
सिंघ उलंघि सबजह, सोइ फुनि इनि नह षाऐ॥
अप्पिअ सु पहमि तुम उदक सह, सो पाओ दूजै जनम।
तप्यौ सु जाइ बही तपह, मत विचार राजस मनम्॥

यही मानो उसकी सामान्य भाषा है। अब सरल भाषा भी देखिये।

जैसे दिल्ली के सम्बन्ध में—

दूहा। आनँग पाल तूंअर तहाँ, दिली वसाई आनि।
राज प्रजा नर नारि सब, बसे सकल मन मानि॥

पृथ्वीराज की बाल्यावस्था—

रज रंजित अंजित नयन, बूंठन डोलत भूमि।
लेत बलैया मात लषि, भरि कपोल मुष चूमि॥

उस की यौवन शोभा में से।

पाघ विराजत सीस पर, जरकस जोति निहाय।
मनों मेर के सिपर पर, रह्यो अहम्पति आय॥
श्रवन विराजत स्वाति सुत, करत न बनै बबान।
(मनु) कमल पन अग्रज रहैं, अोस उड़ान आन॥
कंठ माल मोतीन की, सोमत सोम विसाल।
मेरु सिघर पारस फिरत, जानि नछित्रन माल॥
मिस भीने सु मयंक मुष निफ्ट विराजत नूर।
मानौं वीर उर काम के, उगे श्रानि अंकूर॥

शब्द चित्र यथा कृष्ण चरित्र में।

मधुरिपु मधुरित मधुर मुख, मधु संमत मधु गोप।
मधुरित मधुपुर महिल सुष, मधुरित नयन स ओप॥

युद्ध वर्णन—

गाथा—बजे रन रंततूर, गज्जे गहर सूर पल चूरं।
मंडे निजर करुरं, छठे मरन मोह सासूरं॥