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भारतीय नागरी भाषा

जितनी संस्कृत से हमारी भाषा छोटी है, उतने ही उस के कवियों से हमारे कवि भी छोटे समझिये। कुछ लोग सूर को तुलसी से छोटा कवि कहते हैं। जिसे हम स्वीकार नहीं कर सकते। सागर की थाह सहज ही कैसे लग सकती है, उस में से रत्न निकालना कठिन कार्य है। तुलसीदास जी की कविता सब लोग जानते क्योकि उस का प्रचार बहुत है। सूर सागर अभी पूरा छप भी न सका केवल एक वा दो ही पूरे ग्रन्थ भारत में उपलब्ध होते हैं। क्या यह हमारे अर्थ लज्जा का विषय नहीं है? फिर उस पर कैसे समालोचना की जा सकती है। ्तौभी आगे के लोग साफ कह गये हैं कि—सूर सूर तुलसी ससी उगन केसव दास।

योही—"जो कुछ रहा सो अन्हरै भाखा, कठवी कहेसि अनूठीं।

बचा रहा सो जोलहा कहिगा, अब जो कहै सो झूठी॥

किन्तु वास्तव में ये दोनो तुल्य ही मान्य हैं, इन में छोटे बड़े का विचार करना ही व्यर्थ है। वृज भाषा के पिछले कवियों में गिरिधर दास (भारतेन्दु के पिता और द्विजदेव (अयोध्या नरेश महाराज मानसिंह) और सेवक बहुत अच्छे कवि हुए।

शुद्ध व्रजभाषा में कविता करना कुछ सहज नहीं है। उसमें बड़ी प्रवीणता की आवश्यकता पड़ती है। समझने में भी उसके सामान्य जनों को कुछ कठिनता पड़ती है, उसी से सरल कविता में सुकवि जन भी मिश्रित भाषा को काम में लाते थे। अतः उसी वनभाषा का एक अभेद मिश्रितभाषा भी है, जिसमें दूसरी दूसरी भाषाओं का भी मेल रहता, जैसे उर्दू, फारसी अथवा प्रान्तिक बोलियों का। इस प्रकार की कविता करनेवालों में से प्रधान कवि जायसी, तुलसीदास और रहीम है। जैसे पदमावत में—

जायसी

चौ॰ सावन बरसु मेंह अति पानी। भरनि परी हौं बिरह झुरानी॥
लागु पुरनवसु पीउन देखा। भइ बाउरि सुनि कन्त सरेखा॥
रकत की असु परै अँड टूटी। रेंगि चले जन बीरबहूटी॥
सखिह रचा विउ संग हिँ डोला। हरिथरि भुम्मि कुसभी चोला
हिय हिडोल जस डोले मोरा। बिरह झुलाइ देइ' झकझोरा॥
बाट असूझ अथाह गंभीरी। जिउ बाउर भा फिरै भंभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाउ खेवक विन थाकी॥