पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०१
भारतीय नागरी भाषा

चलती चबको देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबित गया न कोय॥
आये एकै देस से उतरे एकै घाट।
अपनी अपनी चाल से हो गये बारह बाट‍॥
सूरख को सिखलायते शान गाठ का जाय।
कोइला होत न ऊजला सौ मन साबुन लाय॥
अथवा—पंडित ज्ञानी क्यों न पिंओ छान पानी।

अब इससे दो बातों का पता चलता है, एक तो यह कि हमारी वर्तमान भाषा लल्लू जीलाल के समय से कई सौ वर्ष पूर्व से प्रचलित थी। दूसरे यह कि उस भाषा में उसी समय से कविता भी होती थी। आज कल के लोगों के इस कथन में कुछ भी सार नहीं है, जो खरी बोली को खड़ी बोली लिखते और कहते हैं कि यह इजादिबन्दा है। स्वर्गीय वायू अयोध्या प्रसाद के उत्तेजना से जिनका प्रारम्भ या अधिक प्रचार हुआ है। हम अनेक प्राचीन कवियों की इस चाल की बहुतेरी कवितायें दिखला सकते हैं कि जिसकी भाषा वर्तमान नागरी ही है का उसी से मिलती जुलती हैं। किसी किसी में पारसी के शब्द मी मिले है और किसी में नहीं। किसी में कुछ व्रजभाषा का पुट पड़ गया है, तो किसी में कुछ संस्कृत के भी छींटे गये हैं! यह दोनों प्रकार के मेल कविता में ग्राह्य हैं। परन्तु आजकल के खरी हिन्दी—जिसे नागरी ही कहना उचित है के कवि—इस पर राजी न होंगे। क्योंकि वे चाहते कि डीक ठीक जमा हम बोलते हैं, उसी रीति भाँति से कविता भी करें; जिस कारण उन्हें बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ता और कविता के सहज स्वारस्य से उनकी रचना भी प्रायः शून्य रहती है। सबी भाषाओं में बोलचाल और कविता की भाषा में भेद रहता है। परन्तु खेद है कि हमारे वर्तमान नागरी के कवि इस भेद को मिटाना चाहते है। अब इसके कुछ सुविज्ञ कवि खड़ी बोली बा हिन्दी नाम को नापसन्द करके अपनी कविता की भाषा को बोलचाल की भाषा कहने लगे हैं। किन्तु वे बोलचाल की भाषा में कविता कर नहीं सकते हैं। कविता में बोल चाल की भाषा आना बहुत बड़ा गुण है। पर उनकी कविता वा तो संस्कृत सी पढ़ी जातो, या उद्मी सुनी जाती है। जिसका प्रधान कारण यह है कि वे अधिकांश या तो संस्कृत के छन्द या उर्दू पारसी के छन्दों ही में अपनी कविता करते हैं। क्या हमारी भाषा के इतने छन्दों में से कोई भी उनके