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प्रेमघन सर्वस्व

काम का नहीं है? अथवा इनसे उन्हें द्रोह है? उनकी कविताओं अथवा गद्य के लेख में चाहे संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी वा अंङ्ग्रेजी का कुछ अंश भले ही आ जाये, परन्तु ब्रजभाषा का कोई शब्द, पद वा मुहाविरा कदापि नहीं माने पाता। हम नहीं जानते कि इससे लोगों को क्यों इतनी चिढ़ है। यदि उन्हें इस से चिढ़ न होती, तो निःसन्देह उनकी और प्राचीनों की इस शैली की कविता में कुछ भी भेद न होता। सब भाषाओं के कवियों का यह नियम है कि वे पुराने कवियों का अनुकरण करते हुये आगे बढ़ते हैं, परन्तु शोक, इन्होंने उनका सर्वथा वहिष्कार कर दिया। और यही कारण है कि ये उनकी सम्पादित स्वतन्त्रताओं और सुभीते से वञ्चित रहे, जिनकी एकमात्रा और अक्षरों में तीन तीन चार चार शब्दों का काम सहज में निकल जाता और रचना में बड़ी सरलता और सरसता पाती है। जैसे, देखि और देखन आदि।

आगे के लोग इस बोलचाल की भाषा को विशुद्ध वा साधु भाषा अथवा प्रशस्त पद्य रचना के योग्य नहीं मानते थे, इसी से जब कुछ लोग निम्न श्रेणी अथवा छोटे दरजे की कविता करते थे, तो इसी भाषा को काम में लाते थे, विशेष कर जब वे उसे सामान्य जनों के हेतु बनाते, अथवा सरसता को छोड़ते और सरलता से सम्बंध जोड़ते थे। यही कारण है कि प्रायः क्या प्राचीन और क्या मध्यकालीन एवम् कुछ नवीन समय के भी निम्न कोटि के पद्य इस भाषा में बने पाये जाते हैं।

जैसे चूरनवालों की बानी, बिरहे और पचड़ों के बहुतेरे बन्द

स्वांग, भगत और ख्याल चौबोले, सैर आदि जैसे— राम राम कहना अच्छा ही काम है। बेमेहनत का दाना दानाहराम है॥

अथवा—

सदा भवानी दाहिनी सन्मुख रहैं गन्नेस।
पांच देव रच्छा करें ब्रह्मा विष्णु महेस॥
राम नाम की लूट है लूट सके सौ लूट।
अन्त काल पछतावो जब तन जैहै छट॥

नागरी दास—

प्रेम उसी की झलक है ज्यों सूरज की धूप।
जहां प्रेम तहँ आप हैं कादिर नादिर रूप॥
इशक चमन महबूब का वहां न जाये कोय।