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प्रेमघन सर्वस्व

जेहाले मिसकीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ।
किताबो हिजराँ नदारम ऐ जा, न लेहु काहे लगाय छतियाँ।
शवाने हिजराँ दराज़ चूँ जुलफो रोजे वसलत चु उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखू तो कैसे काहूँ अँधेरी रतिया।

आज भी लखनऊ वाले जिन्हें अपनी जबांदानी का अभिमान है ठुमरियों की भाषा में उसी की पैरवी करते हैं। निदान उससे सर्वथा सम्बन्ध त्याग देना इतनी बड़ी भारी भूल है कि जिसका ठिकाना नहीं।

अस्तु, हम अपनी भाषा के पद्य के चार वा पाँच प्रकार के भेदों को उनके उदाहरण के सहित दिखला चुके। गद्य के भी प्रधान दो भेद हैं। एक जो प्रायः पारसी अक्षरों में अधिकांश अरबी, पारसी, शब्दों की मिलावट से लिखी जाती और जिसे उर्दू कहते हैं। दूसरी जो देवाक्षर में अधिकांश स्वदेशी शब्दों ही के मेल से लिखी जाती जिसे हिन्दी वा नागरी कहते हैं। पारसी अक्षरों में लिखी जानेवाली हिन्दी अथवा उर्दू के भी दो भेद है। अर्थात् एक पुरानी भाषा, जिसमें कुछ देशी शब्द भी पाते और जो कुछ कुछ जभाषा की भी छाया रखती, जो देहली की रेखता वा उर्दू कहलाती है। दूसरी लखनब्बी उर्दू, जिसे फारसी की बच्ची कहना चाहिये और क्रिया आदि को छोड़, जिसका शेष सब फ़ारसी ही का रूप रहता है। हम दोनों स्थानों के ऋवियों की कविताओं के कुछ कुछ नमूने देते हैं। जैसे देहली का पुराना कवि सौदा—

जंजीर जुनू कड़ी न पड़ियो। दीवाने का पाँव दरमियाँ है।
कितना शिगुफ्तारू है कि मानिन्दे आरमी।
छाती के जिसके सामने खुल जाते हैं केवाड़॥
उठ जाने में है रोज मज़ा पार से लड़कर।
मिलते हैं तो फिर छाती को छाती से रगड़ कर॥
कहता था यह सौदा वह न चाहेगा कहाँ तक॥
जा बैठूगा दरवाजे पै अब उसके मैं गड़ कर।

अथवा ज़फर—

मेरे दिल में था कि कहूँगा मैं, यह जो दिल पे रंजो मलाल है।
वह जब भा गया मेरे सामने, न तो रज था न मलाल था॥