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१२ प्रेम घन सर्वस्व

कलख करते मन हरते गयन्द गति का अनादर कर निज गति की मति मानों मयड्क मुखीयों को दे रहे हैं। अहा यह ज्योतिष्मतीलता (माल काकुन) फलवती हो कैसी शोभित भई, बनबेले (कोरैया) फूल कर बाग के बेलों को लजाया। न यह शोभा केवल पर्वतों ही ने पाया किन्तु पुष्यवाटिकानों पर भी यौवन आया, देखो कदम्ब ने काम के कामिनी के कलित कुचों की तुल्य फूल फुलाए, मौलश्री ने भी अपनी पुष्पश्री की अधिकाईदिखाई, परिजात अर्थात् हरसिङ्गार ने कुसमालङ्कार से सिङ्गार किया कि जिनकी शोभा देख अनुरागवती युवती समान ललितलताओं ने मानों मदन के उन्माद से विमोहित अधैर्य हो आलिङ्गनान्दार्णव में निमग्न होने से न बची, कृष्ण कान्ती कृष्णाकान्ती के ध्यान मानो कृष्ण कान्तिमय हो प्रत्यक्ष कृष्ण कान्ति को दरसाया! इश्क पेचां उसके इश्कपेचों में पड़ पेच दपेंच में पेचोताब खाये मानों लाल मुकला के मिस कलेजे की बोटियाँ काटे हज़तं इश्क के नज्र के लिए लिए मौजूद है, मालती मालती हो मालइव गले पड़ी, केवड़ों ने कुसुम की कटार से कुसुमायुध के कराल करवाल को काटा। दोपहरी फूलों के प्याले लहू से भरे, चाँदनी ने अपनी चाँदनी छिटकाया, गुले अव्यास ने अपनी सुवास फैलाया, शब्बों पर खुशबू की बाढ़ आई, नगर नागरियों की भाँत गुलमेंहदी ने भी मिहँदी लगा नया रंग लाई, अलबेला बेला इस बेला चमेली के बीच मेली मिलापीपन जना जुही की तरह जवाहिर जरित जेवरों से सज्जित मानों सुगन्ध की सार खींच शेष सुमन से सुगन्ध शब्द में से सकार का लोप कर नाज़ करना प्रारम्भ किया, जब गुलेचीन चीन से जा नवीन छबि उड़ा लाया। हौज तालाब और सरोवर स्वच्छ जल से पूर्ण हो मानों शोभा से भर कर रूप गर्विता नाइकाओं की भाँति निज सौंदर्य अवलोकनार्थ अनगिन्त नैन क मल और कुमोदिनी के बहाने से खोले, नदियाँ बाढ़ की बाढ़ पर श्रा खसी खास्शाक (घास पात) बहातीं, हरहराती, चद्दरै फेकती, भौरों में धूमती, तोड़ और तीक्ष्ण धार को धारे, करार गिराती चली जाती,कि जिनकी धुधलेपन की रंगत ने मानों उन्हें जवानी की दुति दे दिया, जिन पर भाँति भाँति के कीड़े मकोड़े फतङ्गे भानों बर्फी समुन्दर के ऊपर घोड़ी के सदृश दौड़ रहे हैं।

दिहातों और बस्तियों के खेतों पर भी सब्जी छाई धान के हलकोरों ने धानी रड की लहरे, ला जल भरे स्थल की शोभा दिया, कि जिन पर चढ़ी बीर बहटियाँ मानी लाल की लड़ी सी कुछ अकथनीय शोभा को दिखला देती।