पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०८
प्रेमघन सर्वस्व

कहाँ यह जवानी कहां फिर य सिन।
मसल है कि है चांदनी चार दिन॥
हिन्दी जिसे उर्दू और नागरी दोनों कह सकते हैं—
झुके आप से उस से झुक जाइये।
रूके आप से उस से रुक जाइये॥

नागरी के प्रथम गन्ध लेखक लल्लूजीलाल है, क्योंकि उनसे पहले के किसी लेखक का नाम नहीं सुना जाता। अवश्य ही लोग आगे भी गद्य लिखते ही रहे होंगो, परन्तु छापाखानों के प्रभाव से सामान्य गद्य ग्रन्थ कैसे प्रचार में आते। तब क्यों कोई प्रेमसागर सा बड़ा ग्रंथ हाथों से लिखता और उस का इतना प्रचार होता। जो हो, उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के आदि में प्रेमसागर बनाया, जिसकी रचना की प्रशंसा करनी ही होगी, क्योंकि वह केवल प्रायः कान से सुनी बोली के लिखनेवाले थे। उन्होंने विदेशी शब्दों से अपनी भाषा को बहुत बचाया। मानो यही हमारी भाषा का अंतिम संस्कार है कि जो उर्दू से उसे भिन्न रूप देता है। तौभी यह मानना पड़ेगा कि उन की भाषा एक रीति से बालभाषा है, इसी कारण वह निरी सीधी सादी और खुर्खुरी है, जिसे टकसाली भाषा नहीं कह सकते। इसी भाँति उनके पीछे के पादरी लोग वा अन्यों की भाषाएं भी उसी कोटि की है। अतएव उसके दूसरे सुलेखक राजा शिवप्रसाद जी ही को उस का परमाचार्य अथवा आदि सुलेखक या ग्रंथकार कहना चाहिये। क्योंकि जैसी अनोखी और पुष्ट भाषा उन्होंने लिखी, आज तक फिर कोई न लिख पाया। जिस काट छाँट का कैंडा वह बना गये, वह उन की बहुत बड़ी योग्यता का साक्षी है। टेठ हिन्दी शब्दों की सजावट, सुगम संस्कृत और पारसी आदि शब्दों की मिलावट से जैसी सुथरी, सुन्दर और चुस्त इबारत की धारा प्रवाह उनकी लिखावट में आई, फिर किसी की लेखनी से न निकल सकी।

क्या नागरी अर्थात् अधिकांश विदेशी शब्दों से शून्य और क्या सामान्य बोल चाल की सरल भाषा तथा नीम उर्दू उन की सबी शैलियाँ समान रीति से सुहावनी और मन-लुभावनी होती थीं। जिसका प्रमाण उन की पुस्तके हैं। विशेष कर भुगोल हस्तामलक अथवा गुटका और इतिहास तिमिरनाशक विशेषतः तीसरा भाग।

एक दिन मैं अपने अभिन्न हृदय माननीय मित्र भारतेन्दु से संयोगात् कह उठा कि मैंने सब की लिखी हिन्दी पट्टी, परंतु जो स्वाद मुझे राजा साहिब की