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भारतीय नागरी भाषा

लिखावट में मिलता है, दूसरों की में नहीं। वह मुसकुरा कर बोले, कि "क्या कहें वैसी लच्छेदार इबारत कोई लिखी नहीं सकता, पसंद कैसे आवै। सचमुच उन के कलम में जादू का असर है।" अवश्य ही वह सरल उर्दू शब्दों के मेल को बुरा नहीं समझते थे और अप्रचलित संस्कृत शब्दों के मरने के विरोधी थे। वह केवल ठेठ बोल चाल की हिन्दी के पक्षपाती थे। एक दिन भारतेन्दु के साथ मैं उनके घर पर गया और बातों के साथ हिंदी की लिखावट की बात चली, तो कहा कि "आप क्या पाणिनि का जमाना लाना चाहते हैं?" इबारत वही अच्छी कही जायगी कि जो आम फ़हम और खास पसंद हो। बाबू साहब ने कहा कि "हुजूर! क्या किया जाय अरबी फारसी के अलफाज़ के मेल से तो उर्दू हिंदी में कुछ भेद ही नहीं रह जाता।" कहा कि "भेद तो दरअस्ल हई नहीं है, लोग दोनों तरफ से खींचतान करके भेद बढ़ा रहे हैं। पिछले दिनों राजा साहेब अपनी भाषा में उत्पन अधिक ला चले थे जिस के कारण शायद उनके अफसर डाइरेक्टर शिक्षा विभाग हुए हो, अथवा सारी कचहरियों में उर्दू के स्थान पर हिंदी के प्रचार के अर्थ बहुत उद्योग कर के भी हताश हो कदाचित् उन्होंने यह सिद्धांत कर लिया था कि अब हिन्दी ही को उर्दू बना चलो क्योंकि राजभाषा से प्रजा को परिचित करना अति ही आवश्यक है। जो हो, उन्होंने पाठ्य पुस्तकों में अपनी भाषा की शैली बदल दी। तृतीय भाग इतिहास तिमिरनाशक के अंत की भाषा खरी, वरञ्च उच्च कोटि की उर्दू कही जा सकती है, जिसे कम लियाकत के मुदरिंस तो प्रायः समझ भी नहीं सकते, पढ़ाते क्या? वैसे ही उन्होंने अपनी भाषा के लिये एक व्याकरण भी बनाया जिसमें फारसी और अरबी के नियम और गर्दन लिखकर अवश्य ही हमारी भाषा में एक अच्छी वस्तु छोड़ गये पर वह उस काम के लिये उपयुक्त नहीं, जिस के लिये उनका श्रम था। यह तो अनहोनी बात थी कि दूसरे वणों द्वारा दूसरी दूसरी भाषाओं का सम्यक् शान हो सके; कवि वचन सुधा में बहुत दिनों तक उस की समालोचना हुई थी। फजीहत राय के नाम से बाबू हरिश्चन्द्र लिखते थे। उस लेख माला का एक शीर्षक ही था कि मला यह व्याकरण पढ़ावैगा कौन? हमारी गवर्नमेंट यही चाहती है कि एक भाषा दो भिन्न अक्षरों में लिखी जाय, परंतु यह कब सम्भव है। जब तक वह अपनी इस भूल को न सुधारगी प्रजा की दशा न सुधरेगी और न हमारी भाषा का उद्धार होगा! बाबू हरिश्चन्द्र प्रारम्भ में उन्हीं के अनुकरणकर्ता हुए। वे राजा