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प्रेमघन सर्वस्व

साहिब को अपना गुरू मानते थे कुछ दिनों दोनों की भाषायें एक सी थीं, परंतु पीछे दोनों की शैलियां भिन्न भिन्न हो गई। वे विदेशी शब्दों पर झुके और ये देशी शब्दों पर। वे कदाचित् गवर्नमेण्ट की इच्छा से लाचार थे क्योंकि तब से आज तक पाठ्य पुस्तकों की भाषा उर्द मिली ही देखी गई। बहुतेरों ने इधर नई नई पुस्तक लिखी, परंतु भाषा उनकी निरी उर्दू ही है। यहीं लेख भी सर्वथा सूखे और निर्जीव से जिन में राजा साहेब की उर्दू मिली भाषा की शतांश रोचकता और पुष्टता भी नहीं। कुछ लोग इसी भ्रम में पड़कर अपनी भाषा में उर्दू पन ला चले। कदाचित् उन्होंने समझा कि पारसी अरबी शब्द भर देने ही से इबारत दिलचस्प हो जायगी परन्तु सिफ इसी बात से उस में बात की मिठास कब आ सकती थी।

अस्तु, राजा साहेब केवल पाठ्य पुस्तकों ही को लिख गये और केवल अच्छा गद्य ही लिख सकते थे परन्तु बाबू हरिश्चन्द्र ने साहित्य का कोई भाग ही अछुता न छोड़ा और सब में अपनी समान योग्यता दिखलाकर सबी रूचि के लोगों के मन में स्थान किया। उन्होंने स्वयम् ही लिखा परंतु औरों से भी दिखवाया और लोगों में लिखने पढ़ने की रुचि फैलाई। स्वयम् लिखने में इतने अभ्यस्त थे कि यदि यह कहैं कि यावजीवन उनकी लेखनी चलती ही रही तौभी अयुक्त नहीं। वास्तव में वह सदैव लिखने ही पढ़ने में व्यस्त रहते थे, और विचित्रता तो यह कि सैकड़ों मनुष्यों में बैठे भाँति भाँति की गप्पाष्टक होती, तौभी उनकी लेखनी चली ही जाती थी। इसी से वे इतनी थोड़ी अवस्था में इतने ग्रन्थ लिख सके । चार सामयिक पत्रों का सम्पादन भी करते थे। अर्थात् कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगज़ीन वा इरिश्चन्द्र चन्द्रिका, बालाबोधनी, जो बरस ही छ महीने चली और भगवद भक्ति लोषि (यह दोई चार संख्या छप सकी) सब से प्रधान 'कवि बचन सुधा'। थी जो प्रथम मासिक फिर साप्ताहिक हुई और जो उन के ख्याति की प्रधान सामग्री थी। उस से आगे नागरी में दो एक पत्र और छपते थे परंतु वह गिनती के योग्य नहीं। प्रथम पत्र यही कहा जा सकता है। पहिले जिस में केवल कवित्तों का संग्रह, फिर काव्य के सब प्रकार के ग्रन्थ, फिर समाचार आदि छपने लगे। उस समय जितने अच्छे लेखक थे सबी उस में लिखते थे, जिन में से कई पीछे से पत्र सम्पादक हो गये और अपने नये पत्र। निकाल चले।