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प्रेमघन सर्वस्व


परन्तु खेद कि आज हम लोग जो अपनी भाषा का रूप देखते हैं वह इन दोनों की लिखावट से भिन्न है। शैलियाँ दोनों की आज भी प्रचलित हैं। लेखकों की संख्या भी अधिक है। ग्रन्थ भी बहुत प्रकाशित होते तौभी लोग यही कहते कि हमारी भाषा में अच्छे ग्रन्थ नहीं हैं, अच्छे लेखक नहीं हैं। क्या यह वास्तव में सच है और यदि सच है तो इसका कारण क्या है? हम यह कहेंगे कि हमारी भाषा की ऐसी दशा हो गई है कि जब तक कोई संस्कृत, ब्रजभाषा, उर्दू, फारसी और अब अँगरेज़ी भी न जाने वह अच्छा लेखक नहीं हो सकता क्योंकि जब तक संस्कृत और व्रजभाष जानेगा सुन्दर शब्दों को न पावेगा और न प्राचीन संगठित शैली से अभिज्ञ होगा एवम् प्रमाण और उदाहरणों के लाने से भी बञ्चित रहेगा। उर्दू के बिना मुहाविरे ठीक न' होंगे और भाषा भो प्रायः अशुद्ध होगी; क्योंकि आज कल की हमारी भाषा में बहतेरे शब्द अरबी फारसी के दिना आये भीन रहेगे और उनका अशद्ध प्रयोग जानकारों को असह्य होंगे। अँगरेज़ी अब सब से अधिक आवश्यक हो गई है जिसके बिना वर्तमान समय में कुछ कार्य ही नहीं चल सकता। इसी से उन लोगों के पीछे के जो लेखक हुए उनमें जो जितनी ही अधिक भाषाओं के ज्ञाता थे वैसी अच्छी भाषा लिख सके।

काशी हमारा सदाका विद्यापीठ है। वहीं से यदि संस्कृत की धारा बहती थी तो उस की बच्ची हमारी भाषा की भी स्त्रोती का वहाँ से निकलना परम स्वाभाविक है। भारतेन्दु के अस्त होने पर जो नागरी प्रचारिणी सभा खुली, मानों वह आज भी उनकी प्रतिनिधि बनी बहुत कुछ उनके किये की लाज रख रही है। उसने कई काम ऐसे किये कि जो हमारी भाषा के हितैषियों के धैर्य हेतु हैं। विशेषतः पृथ्वीराज रासो को प्रकाशित करना, हिन्दी कोश का निर्माण और प्राचीन भाषा ग्रन्थों की खोज और उन में कुछ का उद्धार करना। सम्मेलन स्थापन का सुयश भी उसी को मिला और यह भी उसके बड़े कामों में है। आज यह जिस का ईश्वर की कृपा से तृतीय अधिवेशन है, मानो काशी क्षेत्र से जो हमारी भाषा का नया अङ्कर उगा था वह क्रमशः इतना बड़ा वृक्ष हो गया कि जिस की छाया आज भारत के सीमाओं तक पहुँची है। एक दिन वह था कि जब उस का एक एक हितैषी राजा शिवप्रसाद सितारा हिंद के किसी अङ्गरेज़ी कवि के कथनानुसार—

जुग जुगात छोटे से तारे, अचरज मोहि अहै तू क्या रे।
घरनी सो अति ऊपर ऐसे, चमकत नभ मैं हीरक जैसे॥