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प्रेमघन सर्वस्व

मात्राओं की लहलहाती शोभा से हमारी इस मूल भाषा से क्या तुलना है? वृक्ष के मुख्य स्तम्भ से पत्रावलियों की शोभा और संख्या अधिक होती ही है। बह जब से जनमी, सुख से पलती और उभरती चली आई, इधर इसके विधवा के अनुचित गर्भ के समान प्रसव न होने देने ही की युक्ति की जाने लगी।

आप बँगला, मराठी और गुजराती की उन्नति देखकर इसकी हीनावस्था घर क्या खेद करते ऐसा कहते हैं? परन्तु क्या उस देशवालों के से अधिकार आप भी रखते हैं? क्या उन्हीं लोगों के समान हमें अपनी भाषा की शिक्षा मिलती है? क्या उनके समान हमारी भाषा भी अपने देश के राज कार्यालयों में प्रतिष्ठित है? नहीं यह तो विचारी "बहु दिवसन तैं राज सभा सों रही निकारी।"

फिर भला औरों से इसकी क्या तुलना की जा सकती है? जिस देश की वह भाषा है, हमारी सरकार से वहाँ की एक दूसरी ही भाषा और वर्णवली स्वीकार की जाती है। एक मियान में दो तलवारें घुसेड़ दी गई है मानो पारसी अक्षरों में उर्दू भाषा मुसलमानी बादशाहत की यादगार बरकरार रक्खी गई है। अब ऐसी दशा पर महाशयों! आप विचार करें कि बिना किसी सहारे के जो आप की भाषा उन्नत हो रही है, यही आश्चर्य्य है। क्योंकि शिक्षा में भी इसकी जड़ काटी गई है। कहा जाता है कि पाठ्य पुस्तकों की भाषा ऐसी रक्खी जाय कि जो दो भिन्न भिन्न वर्णावली में लिखी जा सके, अर्थात् नागराक्षर और पारसी लिपि में भी। इसीलिये उर्दू और हिन्दी दोनों का नाम छोड़कर साहित्र लोगों ने इस देश की भाषा का एक नया नाम हिन्दुस्तानी रक्खान एतबार होता इन्साइक्लोपीडिया वृटानिया खोलकर देख लीजिये। इसका फल यह होता है कि हिन्दी पुस्तकों की भाषा उर्द हो गई क्योंकि पारसी लिपि में तो दूसरी भाषा के अक्षर लिखे ही नहीं जा सकते। यदि कोई लिखे भी तो उसका पढ़ना नितान्त सम्भव हैजो आजकल हमारे देश युक्तप्रान्त और पंजाब के राज कार्यालयों में हमारी देश भाषा के नाम से पारसी अक्षरों के सहित प्रचलित है और जिसके कारण नित्य प्रति हमारी जो हानि होती है, उसका ठिकाना नहीं है। जैसा कि मैंने "आनन्द बधाई" नामक कविता में कहा है;—

वै भागनि सों जब भारत के सुख दिन आये।
अँगरेज़ी अधिकार अमित अन्याय नसाये॥