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भारतीय नागरी भाषा

कियो न बदन मलीन पीन बरु होत निरन्तर।
रही धीरता धारि ईस इच्छा पर निरभर॥

प्रथम तो कचहरियों में उर्दू के जारी रहने से सामान्य नौकरी पेशा वाले लोग हिन्दी पढ़ते ही नहीं और जो पढ़ते भी हैं तो उन्हें उसकी कुछ भी योग्यता नहीं होती, उन्हें हमारी भाषा की कोई अच्छी पुस्तक वा समाचारपत्र दे दीजिये उसे वे पढ़ भी नहीं सकते समझना तो दूर रहा। क्योंकि आजकल की पाठ्य पुस्तकों के प्रणेता छुट्ट उर्दू ही में उसे लिखते, ऐसा न करने से धुस्तके सरकार से स्वीकृत भी न हो। प्रणेता भी प्रायः नवशिक्षित ही होते कि जिन्होंने इसी क्रम से हमारी भाषा पढ़ी है। साहिब लोगों की पुस्तकों के अनुवाद कभी इसी साँचे के ढले होते। बहुतेरे यन्त्रालयों से प्रकाशित ग्रंथ भी प्रचलित हैं कि जिनके प्रणेता थोड़ी योग्यता और थोड़े वेतन पर रख लिए जाते और जोड़ तोड़ लगाकर बेगार टालने के लिए वही पुस्तके पाठ्य पुस्तकों में रक्खी जातीं। पुस्तक प्रणेताओं की योग्यता की परख इसी से हो जाती कि वे अपने अन्य का एक नाम भी अपनी भाषा में नहीं रख सकते ग्रन्थ उर्दू वा हिन्दी का और नाम अँगरेज़ी प्राइमर और रीडर जहाँ राजा शिवप्रसाद सहश विलक्षण विद्धान के बनाये भूगोल हस्तासलक, इतिहास तिमिरनाशक, गुटका और विद्याङ्कर से पढ़ाये जाते थे, तहाँ अब ऐसे कि जिन्हें देखकर हिन्दी के नाम रोना आता है। निदान ऐसी ही ऐसी पुस्तकों को पढ़ जो आज हमारे देश के नव-शिक्षित युवक निकलते हैं उन्हें प्रायः अपनी भाषा से नितान्त अनभिज्ञ ही समझना चाहिये। जब मूल शिक्षा ही की यह दशा है तो उसमें योग्य शिक्षित कैसे उत्पन्न होंगे और जब किसी भाषा के अच्छे शिक्षित न निकलेंगे तो उसकी उन्नति की आशा कैसे हो सकती है। शोक, कि थोड़े ही दिन के लिए सरकार ने बंग को दो भागों में विभक्त कर दिया। बंगाली प्रजा ने आकाश पाताल एक कर दिया। लार्ड माले के निश्चित और अटल सिद्धान्त को दोई चार बरसों में अपने सच्चे घोर आन्दोलन से सिटा कर क्षणभङ्गुर बना दिया, उसमें उनकी क्या हानि थी? अवश्य ही सबसे बड़ी हानि उसमें भाषा और विद्या सम्बन्धी थी किन्तु शोक कि उसी हमारी भाषा पर आज पचासों वर्ष से भाँति भाँति के दुसह आघात हो रहे हैं किंतु हमारे देश के कानों पर अभी तक भी नहीं रेंगे! वह अपने देश में निज भाषा की शिक्षा के सम्बंध में कभी विचार भी नहीं किया जिससे उनका निरन्तर आधपतन हो रहा है। हमारे देश के अभिमान के हेतु महामान्य श्रीमान गोपाल

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