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प्रेमघन सर्वस्व

कृष्ण गोखले ने जो अपना शिक्षा सम्बन्धी बिल इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौसिंल में पेश किया था और उसके पक्ष में गत वर्ष जब इस सम्मेलन ने अपना मंतव्य स्थिर करना चाहा था तो कैसा उसका प्रतिवाद हुआ था, वहीं क्यों देश के अनेक प्रान्तों में उसका विरोध किया गया था? फिर महाशयो! क्या इसे भी आप अपनी भाषा की उन्नति ही मानेगें? दूसरे प्रान्तों की भाषायें स्कूलों को छोड़ कालिजों की उच्चतर शिक्षा तक पहुँची हैं। क्या आप लोगों ने भी उसके अर्थ कुछ उद्योग किया है? रुपयों पैसों को छोड़ अभी कल सरकारी नोटों पर से आप की भाषा निकाली गई है? क्या आप को उसका कुछ दुःख हुआ? हुआ तो क्या कुछ उद्योग हुआ? क्या एक दिन एक मन्तव्य? फिर क्या नस इतनाही पर्याप्त है सच तो यह है कि आप सन्तोषामृततृप्तों में सहनशीलता की लत लग गई है। आप में उपेक्षा की मात्रा बहुत बढ़ गई है जिस कारण आपकी जो कुछ हानि न हो थोड़ी है।

देश के सौभाग्य से उदार हृदय न्यायमूर्ति महामान्य सर एण्टनी मेकडोनल हमारे देश के प्रांतिक प्रभु होकर आये और हमारे मित्र माननीय मदन मोहन मालवीय ने, ईश्वर उन्हें चिरञ्जीव रक्खे, लोहों के चने चाभ कर किसी प्रकार अपनी मातृभाषा का राजकार्यालयों में प्रवेश का अधिकार भी कराया परन्तु क्या उसका कुछ भी फल हुआ? क्या इस अलभ्य लाभ को पा करके भी आप लाभवान हुए? जहाँ देखिये अभी उर्दू बीबी ही की तूती बोल

सारांश जब तक आप की भाषा की पूछ न होगी, उसका कोई ग्राहक न होगा क्यों कोई उसकी योग्यता बढ़ाने के अर्थ श्रम करेगा? जब तक उसके सुयोग्य साहित्य सेवियों की संख्या न बढ़ेगी उसमें से अनोखे सुलेखक और ग्रन्थकार कैसे निकलेंगे।

कुछ लोग कहते हैं कि हमारी भाषा में अच्छे ग्रन्थों का अभाव है। हम नहीं समझते कि उनका क्या अभिप्राय है? क्या सचमुच इमारी भाषा में उसके परिज्ञान के अर्थ भी ग्रन्थों का अभाव है। क्या चन्द, सूर, तुलसी, केशव, विहारी, भिखारीदास, देव, प्रताप, सुखदेव, मतिराम भूषण, जायसी, रहीम, नरहरि, रघुनाथ आदि अनेक प्राचीन और बहुतेरे नवीन ग्रन्थकारों जैसे राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मण सिंह, बाबू हरिश्चन्द्र आदि के ग्रन्थ अपनी भाषा का परिज्ञान भी नहीं करा सकते? अथवा इनके शिक्षा से कोई लाभ न हो।