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भारतीय नागरी भाषा


कुछ लोग यह भी कहते कि पुराने ग्रन्थ केवल कविता सम्बन्धी हैं और उनमें प्रायः शृङ्गार रस ही भरा पूरा है। हम पूछते हैं कि क्या कविता कोई काम की वस्तु नहीं है? क्या कोई ऐसी भाषा संसार में है जिसे अपनी कविता पर अभिमान न हो? भाषा का मुख्य रूप तो कविता ही दिखलाती है। सत्कवियों ही के मुहाविरे ही तो साधु प्रयोगों के साक्षी होते। कोशों में प्रायः कविता ही के प्रमाण संगृहीत होते। कविता साहित्य सदन की शोभा वरञ्च दीपक है। कविता ही भाषा के आकाश का सूर्य है। रहा यह कि शृङ्गार रस का इसमें आधिक्य है, परन्तु यही एक रस है जिसमें संचारी, विभाव, अनुभाव, सब भेदों सहित दर्शित होते हैं, अतएव रसराज कहाला है। इसका निरादर जगत् की किस भाषा में दिखलाई पड़ता है? अधिकांश इसी रस से तो संसार का साहित्य लबालब भरा हुआ है। आप कहेंगे कि हमें नायक नायिकाओं के भेद-विभेद और उनके प्रेम प्रसंग से घृणा है। यद्यपि यह दोष रस का नहीं है वरञ्च कवि को होता है, तो इसे जाने दीजिये और यद्यपि प्रेम-प्रसंग को आप बुरा नहीं प्रमाणित कर सकते तौभी पालम्बन विभाग को छोड़ उद्दीपन को तो आप भी सराहेंगे। यदि आपको प्राकृतिक सौन्दर्य से भी चिढ़ हो तो इसे भी छोड़िये और सब रसों की सामग्री प्राचीन कवियों ने एकनित कर रखी है आप इन्हीं से अपना मनोरञ्जन कीजिये। वीर, करुण, शांत आदि रस भक्ति, धर्म, नीति, इतिहास, पुराण, आचार, मतमतांतर, कथा, वैद्यक, ज्योतिष, काव्य, कोश, छन्द, अलङ्कार, योगा, वेदान्त आदि वैज्ञानिक ग्रन्थ भी इनमें न्यून नहीं है और लभ्य भी होते हैं। किन्तु हाँ, यदि ऐसे ऐसे समालोचकों के ऐसे ही अलाप जारी रहै तो लोगों की उपेक्षा से वे कुछ दिनों में कपूर की भाँति उड़ जायेंगे।

साहित्य का संगठन समय के अनुसार हुआ करता है। उस समय जब के बने वे ग्रंथ हैं इससे अधिक की लोगों को आवश्यकता न थी। रुचि भी ऐसी ही अधिकांश लोगों की हो रही थी, विशेषतः हमारे देश के राजा बाबू और अमीरों का शृङ्गार ही से काम था वही उनकी माता थी, उसी की अधिक संख्या कविता में पाई जाती है। आज समय दूसरा है, देश की दुर्दशा ने सब की मुटाई झाड़ दी है, अक्ल ठिकाने आ गई है, अब वे बाते नहीं जंचती; इसी से बाज की आवश्यकता को आजकल के सुलेखकों और ग्रंथकारों को पूरी करनी चाहिये वही इसके उत्तरदाता हैं, उन्हें अब अपने साहित्य के शुन्य स्थान को भरना चाहिये और लोग इसके लिये सचेष्ट भी हो रहे हैं।