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संयोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

ऊपर का प्रबन्ध था। प्रायः कवि छन्द के आधार पर गद्य लिखता है क्योकि प्रायः छन्द इसमें बे मौके की जगहों पर मिलते हैं और मौके पर नहीं, जैसे कवि और ग्रंथ के परिचय में आवश्यक था।

अब थोड़ा सा प्रस्तावना के खात्मा और कथा प्रवेश पर लिहाज़ करना उचित है—

प्रथम तो लिखते हैं कि "पृथ्वीराज वेश बदल कर चन्द के संग जैचन्द की सभा में आते हैं" (बस काफी था और यदि आप पात्र सूचना या कथारम्भ के योग्य नहीं मानते तो बेफायदः नाटक का मज़ा खराब करने वाली गुप्त बात क्यों यहाँ प्रगट करते हैं! जिसके आगे चडूबाजों की पिनक से जागकर दूसरे को फिर बोलना होता है कि "सूत्रधार—देखो इस पुष्पवाटिका में से कोकिल की कुहुक कैसी सुन्दर सुनाई देती है" नट—इस शब्द के साथ कङ्कण किंकणादि। वाह) झंकार (कुसूर मोआफ झंकार लिखा कीजिये) भी मिल रही हैं (ये गहने बाल्मीक जी के ज़माने के हैं, आजकल इसकी आकार आप ही के ग्रन्थ में आती है और फिर कंगने नौ करधनी में मंकार?

पृष्ठ ७] कदाचित नूपुर का नाम भूल कर कंकन लिख दिया) खैर? आगे। "नटी॰ यह संयोगिता की रसीली वाणी है और इसी ओर प्राती है और सुनिये—"सू॰ धा॰ तो चलो हम लोग भी चलकर अपना साज समाज ठीक करें। बलिहार बलिहार कहाँ तो संयोगिता पाती है और आप अभी साज समाज ठीक करना चाहते हैं प्रस्तावना काहे को यह तो बनियों का ठाट हुअ कि कोई सौदा पटता ही नहीं जावो जोरू से भी सलाह कर श्राओ।

नटी विदूषकोवापि पारि पार्श्विक एव वा।
सूत्रधारेण सहिताः संलापं यत्र कुर्वते॥
चित्रक्यैिः स्वकार्योत्यैः प्रस्तुताक्षेपिभिमिथः।
आमुष तत्तु विज्ञेय' नाम्ना प्रस्तावनापिसा ॥

साहित्य दर्पणे।

क्या कहैं? प्रस्तावना के उत्तम गुण कोई भी नहीं, न नाटक की चालकी प्रस्तावना है, और न नृत्य के योग्य नाटक रचना॰ खैर! यदि प्रस्तावना के अनुसार समग्र ग्रन्थ पर सम्मति दी जाय तो कादम्बिनी के कई