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प्रेमघन सर्वस्व

मेघ काफी न हो, इससे अब समान भाव से प्रत्येक अङ्क ओर गर्भाङ्गों के मुख्य और प्रयोजनीय ही विषयों की इम आलोचना करते हैं।

(प्र॰ अं॰ प्र॰ ग॰ पृ॰ ९) संयोगिता और उसकी सखी की बातें। अब देखिये कि जैसा नटी ने प्रस्तावना में नायिका अर्थात् संयोगिता को विरह से ब्याकुल बतलाया, कवि ने उसकी कैसी झांकी दिखलाया है 'बादलों के लूम झूम कर पाने फुहारे पड़ने, और शीतल मंद सुगंधित वायु चलने से चित्त का भाव और ही कुछ हश्रा जाता है। यह वसन्त के वायु का वर्णन है, वर्षा में तो "झंका पवन भूकै") त्रैलोक्य ताप हारिणी गंगा...की शोभा देखो"। यहाँ वियोग की ब्याकुलता कहाँ है "करनाटकीजिस तरह ये रस उमंग से जाकर रत्नाकर का हृदय पावन करती है इसी तरह तुम अपने प्रेम प्रवाह से (प्रेम-प्रवाह कैसा) किसी बड़भागी राजकुमार का (यही करनाटकी पृथ्वीराज का गुण गुप्ता धारण किये है?) हृदय तर अर्थात् आई करोगी" पाठकों को ज्ञात हो गया होगा कि नायिका ने अभी तक किसी से अपने प्रेम का नाता नहीं जोड़ा, परन्तु ऐसा नहीं है। फिर कहती है "मेरी प्रेम मूर्ति के हृदय नहीं तब मुझको अपने प्रेम प्रवाह से उसके हृदय तर करने का मार्ग कहाँ मिले, ईश्वर की कृपा से जब उस स्वर्ण प्रतिमा में प्राण आयेंगे तब मुझको अपने जन्म सफल करने का समय मिलैगा" (भला यह कौन लिखावट है)।

[पृष्ठ १२] विलासवती "प्रथम अपने पिता के बल का कुछ विचार करो यदि वे मन पर ले तो क्षण भर में पृथ्वीराज बिहीन पृथ्वी कर सकते हैं संयोगिता-वह सिंह सहज में वशवर्ती होने योग्य नहीं है तद्यपि ऐसा हो तो मैं कारे नाते सती हो अपना पतिव्रत निभाऊँगी (शब्दाशुद्धि का विचार आप लोग कीजिये परन्तु कदाचित् कवि ने रणधीर प्रेम मोहिनी नाटक बना कर बाल रंडा कराने अथवा उस अमंगल की सूचना देने की प्रकृति कर ली है, नहीं तो इस प्रसंग की क्या आवश्यकता थी। योंही नायिका का पूरा प्रेम जान कर मी उसकी सखी नायक के विषय में जो यों कहती है, क्या उचित है? अब उस गीत के 'यमकालंकार को देखिये जिसकी बड़ी तारीफ है।

[प्र॰ अं॰ प्र॰ ग॰] पृष्ठ "१४ मों मन बस्यो प्रिय चहुँ आन"—(इस गीत में पाँच जगह चहुंभान शब्द आया है, तीन जगह का अर्थ तो समझ पड़ता है, दो जगह पुरुसक्ति ही मालूम पड़ती है, हमने देखा है कि