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संयोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

तुम क्या करो" संयोगिता—यहीं से अपना सत्व (सत्व क्या) छोड़ कर इनके गले का हार बनजाऊँ (गले के हार रखने का आपको बहुत शौक मालूम होता है) राग जोगिया [पृ॰ ३५] "प्यारी या छवि की बलिहारी" जब से दृष्टि परी जा तन पै हटी न हठ कर हारी। और अंग अवलोकन की रुचि मन ही रही विचारी। (धन्य! धन्य!! धन्य!!! अब इससे ज्यादः बढ़ कर बेपर्दगी और क्या होगी? वह कौन सी अंग है? जो नहीं देख पड़ती। [पृ॰ ३६] "करनाटकी के गले से लिपट कर। प्यारी! अब इन के मिलने का शीघ उपाय कर दीन दरिद्री को पारस मिले पीछे भी स्वर्ण बनाये बिना कल नहीं पड़ती" (बस अब चुप भी रहिये येतो फार्स हो गया॰) जो ये इस समय यहाँ से बिना मिले चले गये तो क्या होगा (देखिये कैसा कुलवधुनों का चित्र उतारा है)॥ फिर संयोगिता—सुखी! मोतियों के दो थान जल्दी सुन्दरी के हाथ महाराज के पास भेज (गाती भी हैं) [पृ॰ ३६] ठुमरी॥ पियन यह मदन खिलारीरे। पंचवाण कहिबे को धारत भृगुटि द्रिगादिक (द्रिगादिक क्या) अलग संवारत। युवति जनन को तक तक भारत द्रिग मतवारी रे। (फिर द्रिग और फिर मतवारी) जो अब ये मेरे दिग यावत तो इनको पिय पास पटावत (यह कैसा भाई) उनकी मन बस कर मँगवावत यह जिय धारी रे (शायद यह कविता ही मतवारी है) क्योंकि [पृ॰ ३७] राग निहालदे (जनाब यह राग नहीं है इसे माड़वारिनों की भद्दी गीत कहनी चाहिये) "मैं वारी जाऊँ प्यारी मेरी बारियाँ। तेरी मैं बलिहारी जी। तेरी मैं बलिहारी कोमल नार॥टेक॥ (बलिहार) नांवत मोर उमँग से जी कोई हरा भया संसार भौरा भी गंजे प्यारी मेरी आज पैजि कोई कोयल करे पुकार (इसको गंगाजमनी कविता कहते हैं अर्थात् वर्षा और वसन्त दोनों एक ही सांचे से ढली हैं) सरिता सरवर पै चलीजि (सरिता सरवर में खूब चली ) मानो छम छम करती नार (क्या स्वभाव का चित्र है) आपने कजली भी बना डाली [पृ॰ ३६] "आई जोबन; हाँ, हाँ रे भाई जोबन की बहार (इसके अंग्गे?) नवललता नवमंजरी नव सुवास सुखसार। नव कोंपल नवकुसुमदल नवल कली कचनार॥ देखो तो आई जोबन हाँ, हाँरें आई जोबन (मला कजली जिसका प्रस्तार भी आप को नहीं मालूम क्यों बनाने लगे, और फिर वर्षा वर्णन में नवल लता नव मंजरी नव कोपल और नवल कली कचनार लिखते हैं॰ हाय हाय क्या आप को इतना भी नहीं मालूम कि कचनार कब फूलता है)।