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प्रेमघन सर्वस्व


[पृ॰ ४१] पृथ्वीराज—हे अनंग॰ तुम...मुझको प्यारी के पास पहुँचने के लिये अनङ्ग, अर्थात् शरीर विहीन क्यों नहीं बना देते (वाह क्या नई और अच्छी बात है) पृथ्वीराज अचेत हो गिरने लगते हैं (क्या मिरगी पाती थी?) सुन्दरी सम्हालती है। (क्या उचित दृश्य है) सुन्दरी "आप का चित्त...व्याकुल मालूम होता है महल में चलकर थोड़ी देर विश्राम कीजिये (जाता है)

[पृ॰ ४२] करनाटकी संयोगिता से "तुम्ही ने तो कहा था कि दीन दरिद्री को पारस मिले पीने स्वर्ण बनाये बिना कल नहीं पड़ती। करनाटकी धीरे धीरे संयोगिता को बैंच कर भीतर ले जाती है" (क्या खूबी से कवि संयोग सूचना देता है)॥

अब देखिये समागम की दशा आप देख ही चुके, नायक नायिका के स्वभाव का परिचय मिल ही गया होगा, नाटक के प्रबन्ध का कुछ कहना ही नहीं, एक गँवार भी जानता होगा कि स्थान परिवर्तन के कारण गर्भात की आवश्यकता होती है, अर्थात् स्थान के बदलने में परदा बदला जाता है; और इसी परदे के बदलने को दूसरा गर्भाङ्क मानते हैं; सो आपने एक ही गर्भाङ्क में तीन स्थान बदल डाले अर्थात् महल जहाँ नायिका है, और दसरा गंगातट जहाँ नायक है, और फिर महल पर हम लाचार हैं अपने देश के खुशासदियों से कि जो बिना जाने भी किसी वस्तु की बड़ाई ही करने लगते है, किसी ने इसी गर्भा की तारीफ़ में लिखा है कि "पलभर की सुई का रुख भी कभी उत्तर से फिरते देखा है" यह अपूर्व और नई उपमा है। (हम जानते हैं कि जिसने ऐसा लिखा सचमुच प्राचीन काव्यों को नहीं देना है यद्यपि यह उपमा स्वयम् अशुद्ध है, क्योंकि पलभा की सुई उत्तर से अकसर फिरा करती है, परन्तु हाँ किसी और दिशा में ठहरती नहीं; पर तो भी हम पुरानी उपमा के प्रमाण लिख देने की आवश्यकता जान लिख देते हैं। जैसे कि विहारी सतसई में

"सबही तन समुहाति छिन छिनक चलति दै पीठ।
वाहीं पैं ठहराति यह किवलनुमा लों दीठ"॥

योही—'किवलनुमा लौं जात चली उत रहत यार जितहीं।' परन्तु जो एक अनोखे शब्द को भी नया जान रीझ कर कविको भाषाचार्य बनाते हैं उनसे क्या चारा है, उन्होंने श्री हरिश्चन्द्र का शायद वह कवित भी नहीं