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संगोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

देखा कि—"भये विगरैल अनोखे"॥ हम तो देखते हैं कि नटों के विज्ञप्तिके के लिये और उनकी अवस्था सूचक जो वाक्य लिखे गये हैं वे भी अच्छे प्रकार के नहीं, सच तो यह है कि कथा का मुख्य भाग और नाट्य रचना की चतुराई ऐसी ही रीति तथा टिप्पणियों से लिखकर टाली गई है जैसा कि आगे के गर्भाङ्क में (द्वितीय अंक! द्वितीय गर्भाङ्क। स्थान संयोगिता का बाग़) यह गर्भाङ्क भी दम्पत्तिसमागम या नायिक नायका के विहार के वर्णन पर लिखा गया है। हमारी जान इस २ गर्भात को जुदा लिखने की बिलकुल ज़रूरत न थी, क्योंकि जब नायक का महल में प्रवेश कराया गया तो वहीं इसे भी खतम करना था। खैर इसकी भी वानगी देखिये॥

(पृष्ट ४३) पृथ्वीराज अति सुन्दर रत्नजटित सिंहासन पर बैठे हैं। संयोगिता अपने एक चरण की नोट दे हाथ जोड़ शिर झुकाए अलग खड़ी है (यह दासी का भाव है)। पास ही एक मनोहर झूला वृक्ष में पड़ा है। करनाटकी वृक्ष की ओट से इनका भाव देख रही है (इसे नाट्य व्याख्या कहें या कहानी)। पृथ्वीराज—"मेरे नयनों के तारे, मेरे हिये के हार, मेरे शरीर का चन्दन" (प्रिय पाठक! सच बताइये आप को क्या अनुमान हुआ कि यह बात स्त्री से कही गयी या पुरुष से,अवश्य पुरुष से! परन्तु यह संयोगिता का विशेषण है। क्या इसकी जगह यदि मेरे आँखों की पुतली! मेरे हृदय की माला लिखी जाती तो न अच्छा होता? फिर आगे "ये लोकाचार इस समय मेरे व्याकुल हृदय पर कठिन प्रहार है, प्यारी! रक्षा करो, रक्षा करो" (किससे? युद्ध से? या पागल हो गया? कदाचित् कवि वेणी संहार के मजे को ल्याना चाहता है परन्तु हाय! लोकाचार से) "अब तक तो तुम्हारे नयनों की बाणवर्षा से छिन्नकवच हो मैंने अपने घायल हृदय को सम्हाला" (नयन से भी कवच कटता है? क्या अैज़' यू लाइक इट (As You Like It). का मजा लाना अभीष्ट था?। करनाटकी

[पृष्ट ४४] पृथ्वीराज! मैं अधरामृत का प्यासा हूँ और प्यासे तो दोनों हाथों से पिया ही करते हैं (दूध न अधरामृत कि नीचे जो सरोवर का रूपक) [पृष्ट ४४ पं॰ १३] में स्त्री के अंग में लिखा गया, न कालिदास की चोरी है बल्कि साफ सीनाजोरी है यथा

बाहू द्वौ च मृणाल (मास्य कमलं लावराय लीलाजलं श्रेणी तीर्थशिलाच नेत्रसफरी धम्मिल शैवालकम्। कान्तायाः स्तनचक्रवाकयुगलं कंदर्पवाणाबलै र्दग्धानामवगाहनार विधिना रम्यं सरो निर्मितम्?

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