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संयोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

महाराज ने अपना स्मारक चिन्ह दिया था। न जाने कब आप झले पर भी बिरा गये कि जिससे गीत छन्द सावक को झलना लिख डाला।

[पृष्ठ ४५] "देखो री प्रिया प्रिय मिल गये मिल गये सकल प्रकार (सकलप्रकार क्या) अब हरिश्चन्द्र के हीरो पर हाथ बढ़ाने के लिये दर्पया भी लेना पड़ा।

[पृष्ठ ४६] यथा—"सखि दर्पण मत ल्याइये प्रिय सन्मुख इन्हीं बार"। क्या इससे यह दोहा खराब था "बार-बार पिय आरसी मति देखहु"। (कहां श्रारसी और कहां दर्पण और इहिं) नवीन भारतेन्दु न हा चाहते हैं। फिर करनाटकी मलार गाती है गोया वह पागल' ही गई; नहीं जानते कि दोनों के एकान्त बिहार में यह दाल भात में मूसर कहाँ से आगई? कवि इतने पर सन्तुष्ट न हो हाथ में शराब का प्याला दे मारयाड़िन बना बीबी संयोगिता का भी मुजरा करवाया।

[पृ॰ ४६] प्यारा म्हारो मन राखो मद तो पियो, हेजी थारो गुण गास्यां थोड़ो थोड़ा मद तो पीयो। (आज कल तो किसी क्षत्रा से कह दे तो लड़ाई हो जाय, शराब ख्वारी में मारवाड़ी बोली क्या बहुत मौजू थी) "साजन मद मैं गुण घणा केसे कहूं बनाय। बिन पचरंग हिंडोलना प्रीतम मोंका खाय', (वाह! जनाब यह तो पते वार बात बयान करने लगे) "साजन थोड़ा अमल में फुर्ती घणी जणाय। सूर चढ़े अरु श्रम मिटै वार न खाली जाय। (बस कह चुके) इससे भी नहीं तृप्ति हुई लो नायिका को नावका बना साफ साफ कहलाना शुरू किया।

[पृष्ठ ५०] देस—"दीजे प्रेम को उपहार। हर्ष हिय पहिराइये, प्रिय बिन गुण (हरधि, प्रिय, बिन गुनन लिखिये) कोहार (बिन गुन का हार रति के अन्त में वर्णन होता है। गाना क्या यह तो रतिभिक्षा माँगना है) कहि कर में राख करिये करन की व्योहार। (यह तो कबीर हो गई। हनने ऐसी निर्लज्जता का लेख सिवाय कोक के और कहीं नहीं पाया। नहीं कोई दूसरा अर्थ बतावै?) फिर कहती है।

[पृष्ठ ५१] "कि मैं अपने मन की दशा क्या कहूँ...कि हर एक काम में आप का अनुकरण किया चाहता है" (अर्थात् आपने मेरा गाल काटा जो नेरा चित्त भी आप का गाल काटने को चाहता है) अब कवि के लज्जा विहीन लेख को देख टुक प्रबन्ध पर भी ध्यान दीजिये कि प्रथम तो आप