पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४७

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ऋतु वर्णन

वह निगोड़ा विधाता इतना मेरे पीछे क्यों पड़ा है? मैंने उसका क्या बिगाड़ा था जो ऐसा दुख केवल मुझी को उसने धकेल रखा है, अरेविसासी ब्रह्मा क्या तू ने ऐसे मेरे मनोहर और सुकुमार अङ्ग केवल अनङ्ग के बाणों ही के लक्ष्य हेतु बनाया था हाय! ए निर्दयी क्या तुझे दवा का नाम भी भूल गया जो ऐसे शुक लोचन से पाला डाला; हाय! क्या तूने असंख्य तारागणों के सहित संसार सुखद सशाङ्क के अपमान के लिए सूर्य को नहीं संवारा? और कुमोदिनी को शोक मूर्छा से मूर्छित नहीं किया? बाचाल चंचरीक को चम्पे पर चकित कर कमल कलिका का अनादर नहीं कराया? अथवा स्वाती सुस्वाद सलिल के स्वाद से बिचारी चातकी को वञ्जित कर सदैव तृषित नहीं रक्खा? या केवल जल भुनकर रास्त्र हो जाने ही के अर्थ व्यर्थ परवाने को दीपक का प्रेमी नहीं बनाया? इसी रीत हमसी अभागिनी के काम तमाम करने को काम और पावस' का बनाना क्या किसी और का काम है? अरे नहीं! नहीं!! नहीं!!! पर! तू चाहे जो कर इसमें किसी का क्या चारा है? नहीं तो यही समय आज सब को सुख का साज साज रहा है; कोटियों सौभाग्यवती ससिमुखों अपने प्रियतमों के छाती से लगीं मधुर अधरासव पान दान से उन्मत्त करते उनके हृदयों को कलित कठोर कुचाग्र अंकुश से छेदती, कोई अपने चंचल चारु चखों के बाण उनके चित्त में चुभाती, कोई रंग महलों में उमङ्ग भरी अनङ्ग के रङ्ग से रंगी केलि कथा कह कह कलोल करती हुई उनका मन हरतीं। हाय कोई अटाबों पर बैठों सूही सारी की छटा से कारी बटा के बीच आप दामिन बन नैनों की पटा फेर उनके धीरता के गढ़ को काटा करती, कोई बाटिकानां और उपवनों में अपने प्यारे पी के संग सुरा पीक गले में हाथ डाले टहलती पावस को शोभा देख देख मगन मन मनमानी चहल करती; कभी संग ही संग हिडोरे और झूलों पर सहेलरियाँ की सहायता से झलती मलार और कजली सावन की अलापें सुनती सुनाती वा गाती हुई तनिक भो झोंका के लगते हो भयभीत हो चट चिमट कर प्यार से लिपट जाती और व्यर्थ भी ससङ्कित सी सतराती कभी उसी रस में नाक भौं सिकोरती, कभी मदनोन्माद से उन्मत्त हो मुस्करातीं और तरह तरह से चोंचले अधारती हैं।

स्वकीयायें दोनों कंज से कर के ऊपर मिंहदी का रंग जमाये, मानो अपने अभागे निष्फल प्रेम के प्रेमीजनों के निज पातित्रत धर्म की छुरी से हलाल किए उनका लहू हाथों में लगा कर अपनी संगदिली और बेदिली, तोते चश्मी