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प्रेमघन सर्वस्व

जिस रस को चाहे ल्याये, जिसका चाहा नाश कर दिया अंत को लिख दिया जवनिका धीरे २ गिरती है। (आप हर अंक में जवनिका गिराते हैं) अब पुरुषों की लड़ाई से सन्तुष्ट न हो स्त्रियों को लड़ाना चाहते हैं।

चतुर्थ अंक। (इस अंक में गर्भाङ्ग ल्याना आप भूल गये) स्थान के जगह लिखते हैं कि "पूर्णिमा की रात्रि के समान (वाह!) प्रकाश हो रहा है। संयोगिता शुक्ला भिसारिका के वेश में हीरा मोतियों के भूषण और श्वेत पुष्पों का मनोहर शृंगार करके पारसी में मुख निहार रही है (कदाचित् कवि अभिसारिका नायिका का लक्षण नहीं जानता या उसको नायक के पास ले जाना चाहता है, जो चाहे सो करे यह सब में समर्थ हैं क्योंकि आगे देखिये) "परन्तु उसके शरीर में शस्त्राघात केसे कुछ चिन्द दिखाई देते हैं" धन्य! धन्य! फिर तो नायिका को रक्ताभिसारिका कहना चाहिये (७२) "नाचत मोर जानि दामिन द्युति" (इस पर भी ज़रा गौर कीजिये)। अब नायिका की बातें सुनिये (पृष्ट ७२) "हाय उनने मुझको बालकपन से लाड़ लगाया (वाह! पर थोड़ी अशुद्धि हो गई) खैर योही कभी पिला पर कृपा दिखलायीं, फिर पति पर आयीं, वोही बेढंगी अनेक गीत गात्री, कभी बीप बजायी, और कभी चौसर फैलायी कभी दर्द से चिल्लायी। अब ज़रा जोरू के बचाये बच कर पाये हुये नायक की डींग सुनिये (पृ॰ ७६) "कि क्या काल की कोई भी अघटित घटना हमारे मन को निर्बल कर सकी है। भय क्या पदार्थ है यह हमने कभी नहीं जाना, कठिन से कठिन संकट आने पर भी मन ज़रा नहीं डिगता जो हो सो हो हम हिम्मत कभी नहीं हारेंगे"! फिर कहते हैं (पृ॰ ७७) हमारे प्राण बचाने वाला बीर मिले तो हम जनम भर उसकी सेवा करें" इतना कहना था कि "नायका नायक की गोद में लेट अपनी भुजा उसके कंठ में डाल देती है (पृ॰ ७७) हाल जान कर आप फरमाते हैं कि वह तो मेरी ही दुसरी देह थी। छाती से लग कर। प्यारी! तुम्हीं मेरा सुख तुमही मेरे प्राग, तुमहीं मेरा वैभव और तुमही मेरे सर्वस्व हो (धन्यरे लिखावट क्या गीत गोबिंद की भी सैर कर डाली) जिसके बदले नायिका साहबा फरमाती है कि आप का मेरा मोक्त भोग्य सम्बंध है (इससे साफ और क्या कहियेगा माफ कीजिये।

अब आप संयोगिता का हाथ पकड़ कर धीरे २ कुलटा स्त्रियों की भांति राजभवन से अपने डेरे में घसीट लाये और क्या आश्चर्य की बात है कि दो बार आने जानेमें रोके तक भी नहीं गये, यह तो किसी सामान्य गृहस्थ के