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संयोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

घर में भी असम्भव है कि जयचंद को इसकी खबर तक न हुई, हमारी जान तो युद्ध का मौका इससे अच्छा कोई भी न था॥

पंचम अंक। प्रथम गर्भाङ्क। स्थान चंद का डेरा। कवि ने यह अंक नीति और धर्म के उपदेश करने के लिये और बलियऊँ भाँव भाँव दिखलाने के लिये बनाया है। जैसे कि पृथ्वीराज चन्द से कहता है कि—

जयचन्द

पृ॰ ८९] तुम जाकर जयचन्द से कह था कि हम अपना मनोरथ सफल अरके दिल्ली जाते है"। चन्द कहता है कि तुम "धर्म और नीति का सूक्ष्म विचार नही जानते, चुपचाप चले चलो"। फिर पृथ्वीराज! "क्या तुम जयचन्द अथवा मृत्यु से हम को डराते हो हम मरने से जरा भी नहीं डरते। चन्द... यह तो पशु धर्म है... भला दीपक पर पतंग के भाँति मरने से क्या लाभ होगा? क्रोध में बहुधा मनुष्य वृथा प्रलाप किया करते हैं...आप स्वस्थ चिश से मेरी प्रार्थना का विचार करें" (क्या सेवक और स्वामी की बात चीत है। हम नहीं जानते कि इस अंक से क्या फल सिद्ध समझी गई है)। पंचम अंक का द्वितीय गर्भाङ्क। स्थान—जयचन्द की राजसभा। इस गर्भाङ्क में कथा की समाप्ति और नाटक का खातमा है। निर्बहणं सन्धि या किसी के भी अङ्गों से तो वास्ता ही नहीं हैं, पर तो भी देखिये यदि हमसे कोई पूछे कि इस ग्रन्थ में तुम्हें कुछ पसन्द भी आया! तो कसम खाने के। लिए बेशक एक जगह है और वह यह कि जब चन्द द्वारा जैयचन्द को अपनी पुत्री संयोगिता के सर्वथा कुल स्त्री दुःसाध्य, एवम् किसी ऐसी राज कुमारी से अनहोने महाधनुचित कर्म विज्ञप्ति मिली। बिचारे के छक्के छुट गये व्याकुल हो कह उठा—

[पृ॰ ८८] कि हाय! "क्या संयोगिता पृथ्वीराज के पास है? हम ने यह यज्ञ किया जिसमें धुत के बदले रुधिर की आहुती दी गई" (पढ़ कर अवश्य चित पर नायिका के बेवफ़ाई, और मां बाप का सम्बन्ध तोड़ लोक लाज से मुँह मोड़ घर बार सब छोड़ उनके अनुमति और इच्छा के विरूद्ध कुलशत्रु अजनवी नायक के साथ चल निकलने से प्राप्त दुःख से दुखी उसके पिता की बातों ने अपने प्रभाव का प्रकाश किया, योंहीं फिर—

पृ॰ ८८] चन्द—से—"तुम क्यों जले पर नोन छिड़कते हो, माता पिता की सम्मति बिना सम्बन्ध होने की यह कौन सी रीति है और इस विषय में हमारे लिये कैसी लज्जा प्रतीत होती है "खैर! अन्त को लाचार